सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

झील पर तीन कवितायें jheel par teen kavitayen

झील -1
झील और मैं

ओ झील तुम वह नहीं रहीं
जो थीं मेरी आंखों में कभी
मैं तुम्हारे किनारों पर
न जाने किसका इंतजार करता था
तुम्हारा प्यार लिए हुए

शायद मैं भी बदल गया हूं
मेरे रिश्ते तुमसे टूट गए
मैं क्या था तुम्हारे सामने
मैं क्या हूं तुम्हारे सामने
शहर की तरह तुम्हारी लहरों को
ग्रसता हुआ एक धुंआ




झील -2

झील और सुंदरता

ओ झील तुम शहर की सुंदरता थीं
तुम्हारी लहरें तुम्हारे लहराते बाल
तुम थीं लहराती
तुम थीं वक्त की दोस्त
तुमने ओड़ी थी हरियाली की चुनर
तुम्हारे किनारों पर थी फुलकारी गोट

अब मैं गवाह हूं
एक शहर की सबसे बड़ी त्रासदी का
मेरा दुख है मेरे आंसुओं से
तुम्हारे किनारों पर कुछ पैदा नहीं होता















झील -3

ओ मेरी झील


ओ मेरी झील
मैं वक्त के साथ घूमता रहा
दुनिया की हसीन वादियों में और तुम
उदास होती गर्इं भोपाल में रहते रहते

तुम सिकुड़ती गर्इं संकोच में
मैंने एक शहर बन कर
तुम्हारे आंचल में घर बनाया
अपनी छत से तुम्हे सूखते देखा
तुम्हें उदास होते देखा

ओ झील लहराओ
तुम्हारे लहराने से लहराएगा मेरा शहर
लहराएंगे पंक्षी लहराएंगे पार्क
ओ झील अपने किनारों
मेरे और मेरे शहर के अपराध माफ करना

मैं तुम्हारे किनारों का साथी हूं
मैं तुम्हारा कवि हूं



रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

जिंदगी का महल

दिल की आंच में निराशा को पकाया है
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है

प्यार के गुलाबी लैंप लगाए हैं
स्वागत के कालीन बिछाए हैं
सुबह की धूप का रंग चढ़ाया
अपने अहंकार को मेहराबों में बदला
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है

बगीचे में विचारों के पौधे लगे हैं
शुभकामनाओं के फूल खिल रहे हैं
मेरा महल हजार कमरे से बना है
हर कमरा कमल की पंखुरी है

मेरे जीवन महल में द्वार बड़ा छोटा है
जो आएंगे गीत गाते हुए
जिंदगी का महल उन्हें सौंपता रहूंगा

बता मैं सड़क की तरफ क्यों देखती हूं


वह कली और फूल के बीच में कहीं रहती थी। यूं कि उसका चेहरा फूलों और कलियों के बीच की सुंदरता में कहीं महकता था। जैसे ईश्वर ने उसे बनाते हुए यथार्थ के साथ थोड़ी सी कल्पना डाल दी थी। आंखों ओठों और गालों पर वैसा ही परिवर्तन फैला रहता जैसा फूलों से भरी शाख के चारों तरफ होता। उसे मैं तो मित्रो कहता था. मगर मेरे दोस्त- ‘यार क्या कली है!’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे. उनके इस संबोधन को लेकर मै अंदर से ंिचंतित हो जाता था मगर उसने शिकायत नहीं करता था. हमारी तिकड़ी चौकड़ी का एक हिस्सा मनोज का विचार अलग था। वह कहता था कि यह लड़की मेंटली रिटार्टिड है. क्योंकि यह छत पर गमलों के बीच बिना हिले खड़ी रहती है और गप भी सुना दी कि एक दिन मैंनें उसे गमले में उगी हुई लड़की की तरह देखा. उस दिन उसके बालों से पानी के मोती टपक रहे थे, उस पर किसी ने उस पर सूर्य-अर्ध्य का चढ़ाया हो... हम तीनों चारों दोस्त अक्सर सुबह उठते और नौ बजे तक गली के एंगल पर खड़े हो जाते। करने को कुछ था नहीं। पढ़ाई ऐसे चलती थी जैसे सरकारी कालेज। हम तो प्रायवेट कालेज में थे। हमें पता था कि कालेज द्वारा एवेलेबल नोट्स की बिना पर परीक्षा की जंग जीत जाएंगे। हम पैरोडी भी बनाते थे- जीत जाएंगे हम जीत जाएंगे हम, नोट्स अगर संग हैं... दीपेश ने कहा ये पुरानी बात है। तुम आज की बात करो. यार मित्रो इज एकदम सनफ्लावर. आज मैंनें उसे छत पर सुबह की धूप में चेहरे को झुकाए हुए बालों को लहराते हुए देखा था. वह हंसती जैसी दीपावली का अनार झलक आया हो. मैंनें उस पर अपना गुस्सा उतारते हुए कहा -वह गुस्सा होती तो मई की धूप का टुकड़ा लगती. सुबह छत पर जाती तब दोनों ओर गमलों की बीच महकती तुलसी की तरह लगती. उदास होती तो शाम के धुंधलके में घिरा हुआ फूल हो जाती। इस सब बातों के बीच यह बता दूं कि अब वह कली यानि मित्रो इस दुनिया में नहीं है. लेकिन इसलिए उसकी कहानी खत्म नहीं हुई. जब कोई इस दुनिया से कहीं चला जाता है तो क्या उसकी कहानी खत्म नहीं हो जाती ? क्योंकि व्यक्ति चला जाता है लेकिन उससे जुड़ा उसका मित्र मंडल और उसके बारे में सोचने वाले लोगों में उस आदमी की कहानी जिंदा रहती है. मित्रों के बारे में भी यही बात है. हम दोस्त उसके बारे में इस तरह से बातें किया करते थे. उसके बारे में और उसके आसपास के बारे में इत्मीनान से जानते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह एक कस्बे की लड़की थी. जैसे कि छोटे शहर होते हैं. छोटे शहर में एक मुख्य सड़क होती है. शहर की बाकी गलियां मुख्य सड़क की दासी सहचरी और सहेलियों की तरह उसे घेरे रहती हैं छोटी गली के बाशिंदे बड़ी गली की उपमा देकर अपने आप पर ताना कसते हैं कि वो गली कितनी अच्छी है. बड़ी गली के लोग मुख्य सड़क के लिए कहते हैं सारा कुछ उसी सड़क के किनारे हो रहा है. मुख्य सड़क के निवासी अपने से बड़े शहर की उपमा देकर अपने कस्बे के लोगों वस्तुओं सड़क़ों भवनों साफ सफाई नेतागिरी को तुच्छ ठहराते हुए जीते हैं. मित्रो भी यही सब किया करती थी. वह किताबों कहानियों ओर टीवी सीरियलों को देख कर अपने कस्बे की तुलना करती थी. बड़े घरों बड़े शहरों वाले माता पिता घर कुटुम्ब गली और अपने आपको कम या ज्यादा ठहराती. उसका कुल मकसद यह था कि उसे और उसकी सहेलियों को कोई बड़े शहरों की लड़कियों से कम करके क्यों आंकता है. मित्रो नाराज होकर अपनी मम्मी से कहती-ह्यह्यहओ ! तुम्हारे जैसो कोई नहीं करै मम्मी. तुम जरा जरा सी बातें लै कै..... अन्वि की मम्मी बिलकुल टोका टाकी नहीं करें.ह्यह्य मम्मी दहाड़ती-ह्यह्यदेख तू मेरी सरीगत किसी अन्वि की मम्मी से मत करू कर. तू हमें तो पागल समझती है. हम तेरे भले के लिए टोकते हैं.ह्यह्य ह्यह्यहमें ऐसो भलो नहीं चाहिए.ह्यह्य मित्रो के चेहरे पर कड़वाहट की परत चढ़ जाती थी. मां बेटी दो दिशाओं की तरह एक घर में घूमने लगती थीं . कुछ देर में विभाजन स्वत: मिट जाता जैसे दो कमरों की हवा दरवाजा खुलने के बाद एक हो जाती है. शाम होते ही मित्रो छत पर आ जाती . कमरे की तरह दिन की घुटन को हटाने के लिए खुली छत पर गहरी सांसों को सीने में भरती. उसकी सहेली सिमी ने एक दिन टोका था-ह्यह्यऐसी सांसें लेती है जैसे दूसरे दिन के लिए भर रही है.ह्यह्य मित्रो कहती-ह्यह्यताजी हवा है न.ह्यह्य सिमी कहती ह्यह्यकल बंद थोड़ी हो जाएगी.ह्यह्य मित्रो कोई उत्तर नहीं देती बल्कि सूरज को एक टक देखने लगती. ह्यह्यक्या हो गया.ह्यह्य सिमी टोकती. मित्रो पूछती -ह्यह्यबता मैं सड़क के तरफ क्यों देखती हूं.ह्यह्य सिमी चैंक जाती. वह सम्हल कर बोली-ह्यह्यकिसी का इंतजार है.ह्यह्य मित्रो सुनते ही हंसने लगी-ह्यह्य...तुम भी यार क्या....प्यार प्यार मुझे चिढ़ होने लगी है. अच्छे कपड़े पहनो तो हर कोई यही कहता है-प्यार करने लगी होगी. कुछ नया करो तो लोगों का अन्दाज प्यार से बाहर निकलता ही नहीं.ह्यह्य ह्यह्यप्यार से बाहर कोई निकले कैसे, घर से बाहर निकलें और निकलने दें तब न. ज्यादा से ज्यादा यहीं छत पर आ सकते हो. मैं अपने घर से तेरे घर पर ही तो आ सकती हंू. मैं और तू यहां से बाहर कहीं गए हैं क्या.. चाहे वो एन.सी.सी का कैंप हो पिकनिक हो या कहीं भी... देश दुनिया देखने को मिले तो प्यार की बातें छूटे. ह्यह्यरहने दे अब ज्यादा मत झाड़ . तू समझदार हो गई है. मित्रो हंसी थी. ह्यह्यहां एक दिन मैं सोच रही थी- अपने यहां के लोग कहीं घूमने नहीं जाते ओैर न जाने देते. ज्यादा से ज्यादा आसपास की शादियों में खाना खाने जरूर चले जाते हैं.ह्यह्य मित्रो सड़क को देख रही थी. मित्रो सड़क देख रही थी. सिमी ने मित्रो को बीच में खींचा. ठोड़ी पकड़ कर पूछा-ह्यह्ययार ये क्या है. ये मैं आज ही नहीं कई बार देख चुकी हूं. तू बोलते हुए बात करते हुए सड़क ही क्यों देखती है. थोड़ी देर पहले तूने पूछा था अब मैं तुझसे पूछ रही हूं कि तू सड़क क्यों देखती है. ह्यह्यतुझे नीचे चलना है.ह्यह्य मित्रो ने स्थिर स्वर में कहा. ह्यह्यमुझे नीचे नहीं चलना है लेकिन ये है कि तू किसका इंतजार करती है. बताती भी नहीं.ह्यह्य ह्यह्यमैं इंतजार तो करती हूं लेकिन किसी प्यार करने वाले का नहीं.ह्यह्यमैं जिसका इंजार करती हूं वह इस सड़क से कभी नहीं गुजरा. ज्यादा नहीे कुछ दिनों से उसकी याद ज्यादा आ रही है. इस छत पर आकर मुझे चैन मिलता हैं. सड़क को देखने से भरोसा आता है. जानती है क्यों, इसलिए कि सड़क पर हर चीज चलती हुई दिखती है. सिमी आंखें फाड़ कर उसे देखने लगी थी. उसकी आंखें सिकुड़ गईं.-ह्यह्य तू पागल हो गई. क्या हो गया तुझे... क्या अनजानी बातें करने लगी.ह्यह्य सिमी दोनों हाथ उसके कंधों पर रख कर देर तक मि़त्रों की आंखों में ताकती रही. जैसे वह उसके इंतजार करने वाले की शक्ल उसकी आंखों में खोजना चाहती थी.ह्यह्यतू समझी नहीं.ह्यह्य मित्रो ने सिमी के हाथों को अपने कंधों से हटाया-ह्यह्यएक बार और तुझे समझाती हूं-ह्यजब मैं छोटी थी...ह्यह्य ह्यह्यअब क्या बड़ी हो गई...ह्यह्य सिमी दादी की तरह बीच में बोली. ह्यह्य...अरे यार ... मेरा मतलब अब से छोटी थी...नानी ने इसी छत पर एक कहानी सुनाई थी. वह थी तो कुछ भी नहीं पर तू सुन ले कि हम दोनों यहां थें। सब लोग टीवी देख रहे थे. चांद खिला हुआ था. आसमान में इक्का दुक्का तारे बच्चों की तरह चमक रहे थे। उधमी बच्चों की तरह वे चांद से बहुत दूर थे. चांद के चारों तरफ धुधला सा एक घेरा था। मैंनें पूछा कि नानी चांद ऐसा क्यों है तो उसने बताया कि वह तुझे देख कर हंस रहा है. नानी ने एक कहानी सुनाई उसमें कुछ भी नहीं था- बस एक लड़का था. वो लड़का बहुत दूर से यहां आ रहा था. उसे हर इंसान प्यार करता था. वो एक राजकुमार था. वह यहां आएगा. इसी सड़क से गुजरेगा. तुझे प्यार करेगा और आसमानों में तुझे ले जाएगा. मैने नानी से पूछा वह कब आएगा? नानी ने कहा...आता होगा एक दो दिन में... दो दिन बाद मैंने पूछा तो नानी ने कहा-ह्यअपन ने कल जो फिल्म देखी थी . वह तो उसमें मर गया.ह्य मैंने नानी से कहा-ह्यपर नानी मुझे तो उसकी याद आने लगी है.ह्य नानी ने कहा यह तो बहुत अच्छा है. अब तू उसका इंतजार कर वह जरूर आएगा. नानी यहां से चली गई। मैंने उससे फोन पर कहा ह्यह्यआप तो मुझे वह लड़का दो आपने मुझे ऐसी कहानी क्यो सुनाई. वह लड़का फिल्म में क्यों मर गया. क्या अच्छे लड़के इस तरह क्यों मर जाते है. तो वो बोलीं-ह्यएक लड़का और है वह बिलकुल साधारण है लेकिन उसे पहचानना मुश्किल है. अब ये मैं उसके बारे में नहीं जानती कि कब वह इस सड़क पर से निकलता है. तुझे चाहिए तो तू रोज देख... कुछ दिनों में तुझे उसकी पहचान आ जाएगी. नानी को मैंनं फिर फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि उनको बुखार आ रहा है. जल्दी ही भगवान उनके लिए आसमान से सीढ़ियां भेज रहा है. एक दिन मम्मी खूब जोर से रोने लगीं. किसी ने मुझे बताया कि तेरी नानी उपर चली गई. मुझे उनकी सीढ़ियों की बात याद आने लगी. मैंने सपने में बहुत लम्मी सीढ़ी देखी जिस पर नानी उपर जा रही हैं. मैं उनको आवाज दे रही हूं लेकिन वे नहीं सुन रही हैं. ह्यह्यअरे तो पगलाती क्यों है. परीक्षा की तैयारी कर.ह्यह्य ह्यह्यलेकिन मुझे उसकी बहुत याद आती है... नानी ने कहा था जिस दिन वह लड़का तुझे मिल जाएगा. उस दिन से मम्मी तुझे डांटना बंद कर देंगी. खूब घूमने जाने देगीं. पापा की पे बढ़ जाएगी. घर के कोने रोशनी से भर जाएंगे. सड़कें और गलियां साफ सुन्दर हो जाएंगी. झुग्गियों की जगह महल बन जाएंगे। लोगों की गरीबी दूर हो जाएगी. आसमान सात रंगों का दिखने लगेगा. तू ओर तेरी सहेलियां और खूबसूरत हो जाएंगी. लेकिन नानी ने कहा था तू उससे प्यार नहीं कर सकती. मैं सच में उससे प्यार नहीं करूंगी.ह्यह्य सिमी आंखें फाड़ कर उसका मुंह देखे जा रही थी. इससे पहले तो उसने मित्रो के बारे में इतना तो नहीं सोचा था. यह कैसी हो गई है. ...मित्रो बोल रही थी-ह्यह्यसिमी वह मुझे नहीं दिखा तो मैं जल्दी ही नीचे गलियों और सड़कों पर खोजने उतर जाउंगी.....ऐसा हुआ. एक दिन मित्रोे बिना बताए कहीं चली गई.

शुक्रवार, 19 जून 2009

पोस्टर



प्रदेष संस्कृति प्रकोप्ठ की महिला षाखा ने आज स्त्रियों के देह प्रदर्षन के खिलाफ षहर के प्रमुख मार्गों पर विरोध प्रदर्षन किया है। इसमें भारी संख्या में नारियों ने हिस्सा लिया । यह षहर में नारियों का ऐतिहासिक प्रदर्षन रहा। महिलाओं और कन्याओं ने संस्कृति के खिलाफ किए जा रहे कार्यों के प्रति एकजुट होकर षासन को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। प्रकोष्ठ की महासचिव सुश्री विजया भारती ने कहा है कि ‘संस्कृति को दूषित करने वाले लोग अब सावधान रहेेंगे। फैषन परेडें आयोजित कराने वाले लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा । सांस्कृतिक कार्यक्रमांे के नाम पर जांघो और स्तनों का प्रदर्षन संस्कृति नहीं है। हम अपने नगर में फैषन परेडें कतइ नहीं होने देंगे।’
ष्षहर के सांध्य अखबार में यह खबर इष्तहार की तरह चमक रही थी । अखबार बरबस ही लोगों का ध्यान खींच रहा था। इस घटना की मौखिक चर्चा पूरे षहर में थी । हां, अखबार में आने पर इसे नया मोड़ मिला गया था । अब लोगों के पास सुश्री विजया का बयान था। यही बयान लोगों के लिए चर्चा का नया मुद्दा बन चुका था।
इस जुलूस के बाद विजया के बारे में कहा जाने लगा कि ‘विजया कभी इस शहर की सीधी सादी लड़की थी । ़़़़़़़ ़ ़़ ़पर अब देखिए ़़ ़़़ ़।‘ मिसेज अंजली ने अखबार रख कर अपनी बेटी से कहा- ‘बेटी !‘ उनकी बेटी ज्योति ने आंखें उठा कर मां की तरफ देखा। ज्योति इससे पहले भी कई बार मां के मुंह से विजया का नाम सुन चुकी थीं। उसकी मां कहा करती थी - ‘इस दुबली पतली लड़की के बारे में इसकी मां बहुत चिचिंत रहती थी।‘ ज्योति ने प्रष्न भरी आखें फिर उठाईं । मां ने उसकी आंखों में देख कर कहा - ‘वही जो पिछले साल अपने यहां आई थी । तेरी कड़ी की खूब तारीफ की थी ।‘
थोड़ी देर ज्योति चुप रह कर बोली -
‘मम्मी विजया के बारे में ऐसे क्यों बता रहीं हो। मैं तो अच्छे से जानती हूं उसे।‘
वह अम्मी की आंखो में ऐसे देख रही थी जैसे कह रही हो आप जो जानती हो वो सवाल और उसका जवाब मुझे मालूम है। मम्मी आगे बोलीं
‘-मेरे स्कूल के सामने से जुलूस निकला । तो मैं दंग रह गई। हे भगवान इतनी औरतें !..और यह विजया! तब मैं जान पाई के ये विजया का कमाल है। मुझे तो इंटर कालेज में इसकी स्पीच को सुन कर लगा था कि ये कुछ करेगी । तब ये इंटर की परीक्षा दे रही थी। तब से आठ साल हो गए । आठ साल कितने जल्दी बीत जाते हैं । तू कितने साल की हो गई ! विजया से तीन साल छोटी है तू।’ ज्योति ने उल्टे पेंडूलम की तरह अपने पेन को हिलाया - ‘उं उं मैं हूं रनिंग इन टवन्टी वन।’
‘चैबीस की होकर उसने जिले और स्टेट के ऊपर अपना नाम फैला दिया ।‘ मां ने कहा तो ज्योति ने छुपाकर मुंह बिचकाया।
‘मंै उससे मिलवाउंगी तुझे ,मंैने उसे क्लास में पढ़ाया है। तू मिल कर खुष होगी उससे।‘
‘क्यांे ज्योति के मुंह से निकला । गोद में गिरे इस ‘क्यों’ से अम्मी चुप थीं और ज्योति ने अपना मुंह किताबोें मे गड़ा लिया था। थोड़ी देर बाद ज्योति ने मां से कहा -‘मम्मी नाम होना जिंदगी जीने की कसौटी नहीं है। क्या तुम जानती हो मेरा नाम भी मेरी पेंटिंग के साथ जाने किन किन देषों में जा चुका है। लेकिन ये बात मायने नहीं रखती कि किसका कितना नाम है। बड़ी बात ये है कि जिंदगी के साथ आपका हंसना बोलना कितना हो पाता है । किसी से आपने पूछा कि नाम होने से वो जिंदगी भी जी लेता है । या के वो केवल अपने नाम को जीता है।‘
इसके बाद फिर मिसेज अंजली ने ज्याति से कई दिनों तक कुछ नहीं कहा।
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विजया सफल विरोध प्रदर्षन के बाद अपने बिस्तर पर लेटी थी । रात गहरा रही थी। बादलों के कालेपन से अंधेरा और भयानक हो उठा था। हल्की गड़गड़ाहट अंधेरे में तैर रही थी । गर्जन इतनी आरोही अवरोही थी कि लगता यह हमारे ही षरीर और मन के तनाव का घर्षण है। दूसरे ही क्षण जब ध्यान षरीर पर जाता तो लगता नहीं यह किसी विषाल घटना से उपजा हुआ षोर है। तभी बिजली चमकती और उस भयानकता का अहसास स्पष्ट हो जाता। विजया को लगा विषाल पहाड़ खिड़की में से उसके सिरहाने आ चुका है । अब वह धीरे धीरे उसके षरीर में प्रवेष कर रहा है । तभी उसके कानों को फाड़ देने वाली गड़गड़ाहट के साथ हल्के ठण्डे पानी के छींटे हवा के साथ चेहरे पर आ पड़े। बाहर बादल टहल रहे थे। किस बादल ने ऐसा किया है । उसे किसी बादल ने छेड़ा है। विजया को लगा कोई लड़का है। वह तमातमा गई। बिजली अब बार बार चमक रही थी।
-कितना अष्लील है सब कुछ।
बिस्तर छोड़ कर उसने खिड़की से बाहर देखा । मीलों लाइटें चमक रही थीं । ठण्डी हवाएं रह रह कर दरवाजे से टकरातीं और विजया के कमरे से होकर बाहर निकल रही थीं । बहुत थोड़ी देर रूककर अपने हाथांे को उठाया । कंधों की जकड़न मिटाकर आइने के सामने आ गई । ओह उसके मुंह से निकला। वह अपने ही वक्षांे और नितम्बों को देख रही थी । वह वापस मेज पर आकर बैठ गई । उसने अपने आप से पूछा- मैं आइने के सामने क्यों चली गई थी। क्या यह भी अष्लील है ? कोई खुद ही अष्लील क्यों हो सकता है । क्या खुद को देखना अष्लील हो सकता है। उसने विचार किया और उठ कर वापस आइने के पास चली गई । उसने अपनी टांगांे को चैड़ा किया । उसने गाउन को ऊंचा किया और देखने लगी । उर्मिला मातोडकर की टागें भी तो ऐसी हैं। आज उसने अपनी टांगें देखीं , वैसी ही थीं । अब इनका क्या करूं । उसे लगा कि ये टांगें उसकी नहीं हैं । उसकी ब्रेस्ट और हिप बडे़ हैं। ये सब किसके लिए हैं। ये किसी और के अंग हैं लेकिन बहुत पहले मुझ ये मेरे मुहं बोले भाई ने कहा था- तेरी गरदन तो गजब की सुराही वाली है। तब अच्छा लगा था लेकिन मां ने सुन लिया था और फिर कहा था ‘- अब तू पूरे गले वाला सूट पहनना षुरू कर दे विजया।‘ वह आइने के सामने मां हो गई और जो प्रतिबिंब दिख रहा था उसे डांटने लगी -ऐसे चैड़ी टांगे करके खड़े नहीं होते और न बैठते । कैसी बैठी है ? ठीक से बैठ।
और आज भी तो यही हुआ न. पार्टी के नेता कैसे उसकी कमर को छूने के कोषिष कर ते हैं । कैसे उसे दबोचते हैं. कभी कभी तो सच में उसे लगता- यह सब कितना गंदा है। एक तरफ हम उनके कहने पर पोस्टर फाड़ें और दूसरी तरफ रात में वे ही हमें दबोचने की कोषिषें करते हैं । मैं नहीं चिल्लाती तो जिलाध्यक्ष गौतम ने तो सुषीला को पकड़ ही लिया था. झिड़कने पर कहता है- ‘कोमन है ये सब ।‘ विजया सारे नेताओं की हरकतों और षब्दों के प्रयोग को हर वक्त पहचान लेती थी. वह जानती थी किस की कामना क्या है । लोग कभी बड़े बन कर, कभी मां की स्टाइल में, कभी दादा की स्टाइल में सामने आते या फिर छोटे होकर हृदय का रस पीने की कोषिष करते । कोई दोस्त बन कर कंधे पर हाथ रखने या लान में टहलने की जिद करता । कभी मुझे सच में डर लगता कि इतने सारे लोग यदि एक हो जाएं तो मेेरे षरीर को कैसा बना देंगे । यदि मैं किसी से दोस्ती करूं तो हर ओर से मेरे ऊपर छाने की कोषिष करते हैं। सब कुछ घृणित और गंदा लगता । विजया प्रतिबिंब पर ध्यान देती है। फिर ठीक से बैठ जाती । अपनी मां को याद करके खुद से ही कहती
‘-दुपट्टा डाल न । अपनी सहेलियों को देख कर कुछ सीख जा । देख सुरूचि अपना पूरा ध्यान रखती है । मजाल क्या है कुछ.........और तू है कि होष ही नहीं रखती अपना।‘
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धीरे धीरे मुझे भी लगने लगा कि सच यही है। मां और सुरूचि ही सही हैं। क्योंकि तभी भाई भी यही कहता था- ‘विजया को कुछ होष नहीं रहता। दोस्तों के सामने न आया करे -मां इसे बोल दो।‘ वह गुस्से में बुदबुदाता जाता-इसमें बिल्कुल भी मैनर नहीं है। पापा ने आज तक कुछ नहीं कहा । तेज चलने और उछल कर निकलने पर आंखें जरूर दिखा देते थे। मैं समझ जाती कि अब उछलना बंद। मैं बहुत जोर से हंसती तब पापा दूसरे कमरे मे चिल्लाते -‘क्या है विजया ! तब मैं ही ही करते हुए चुप हो जाती । इस सब के बाद भी लगता कि सच्चाई कुछ और है । मन ये स्वीकार ही नहीं करता था।‘
विजया फिर बिस्तर पर लेट गई। हवा की लहरें खिड़की के परदों को झकझोर कर उसको छूने आ जाती थीं । उसने अपना चेहरा चादर से ढक लिया था । फिर भी उसे लग रहा था आसमान की पूूरी नमी उसके षरीर में बैठती जा रही है।
आज सारे दिन जो किया उसका सीन उसकी आखों में तैरने लगा. दुबली पतली लड़कियां उछल कर कालिख पोत रही हैं। पोस्टरों को फाड़ रही हंै। नारे की आवाज बुलंद कर रही थीं। विजया ने किसी पोस्टर को गौर से देखा और चिन्दी चिन्दी होते पोस्टर में खुद को देखने लगी । जहां भी लड़के लड़कियां कालिख पोतते उसे अच्छा लगता लेकिन अब उसके ही कमरे में क्यों लग रहा है कि यह कालिख उसके अंगो पर पुती है। पोस्टरांे को फाड़ते फाड़ते यह क्या देखने लगी । उसे पोस्टरों पर छपी हिप जांघे और डांस के चित्र अच्छे लगने लगे। सामने बिखरा सारा तामझाम अपने ही खिलाफ लगने लगा। वह खुद ही अपने खिलाफ लगने लगी । उसकी गति में ,उसके उत्साह में अनावष्यक उदासी झलकने लगी।
दूसरे दिन उसकी स्पीच में धार नहीं थी जो वह इससे पहले पैदा हो जाया करती थी । आज वह कह रही थी । हमारे विचार से यह सब जल्द बदल जाना चाहिए । हमंे अपने विवेक को जाग्रत करना होगा। आज उसके विचारों में इन पोस्टरों के प्रति भयावहता और डर नहीं था । आज विजया की आंखों में सच को स्वीकार करने के बाद आने वाली चमक झलक रही थी । यह कमजोरी झूठ की हजारों दहाड़ों से ज्यादा ताकतवर थी. षाम को विजया अपने कमरे मे आ चुकी थी । वह पहली बार इस आंदोलन के लिए इतनी उदास और अषांत थी । उसे लगा इस आंदोलन की नीव में कुछ गड़बड़ है । उसे और षामों से आज ज्यादा थकावट महसूस हो रही थी । लेटने से पहले उसने म्युजिक सिस्टम आॅन किया। कुछ देर लेटे रहने के बाद उठ गई । सिस्टम के पास आई और नई सीडी डाल दी । संगीत का असर विजया के मन और षरीर में फैल गया गया। पैरों में थिरकन नषे की तरह चढ़ने लगी थी । विजया डांस करने लगी थी । कांच मंे वह खुद को देख रही थी।
‘अरे जैसी ........‘उसने अपने हिपोेें को फिर हिलाया
षिफान का नाइट सूट उतार दिया और देखा उसका सब कुछ कल वाले पोस्टर जैसा है जिसे उसने एक राड में उलझा कर सड़क पर छितरा दिया था । उसने पोस्टर की तरह खुद को बनाया। आइना बता रहा था कि उसके कंधे हिप कमर और स्तन पोस्टर से भी अच्छे लग रहे थे । उसकी इच्छा हुई कि कोई उसका फोटो खींच ले और सब चैराहांे पर लगा दे । लेकिन यह संभव नहीं था । और वह फिर ए. आर. रहमान के संगीत पर डांस करने लगी।
अचानक रात में ज्योति के फोन की बेल आई। ज्योति उनींदे स्वर में थी -
‘हैलो ,मैं ज्योति हूं ।‘

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-‘मैं विजया भारती बोल रही हूं। तुम अभी आ जाओ। मैं गाड़ी भेज रही हूं !‘
-‘किसलिए ? ‘
-‘तुम पेंटर हो न, इसलिए।‘
-‘मैं आपका चित्र दोपहर में आकर बनाउंगी। अभी आप बिलकुल तनाव और थकावट से फ्री हों.‘ दूसरे दिन सुबह उसने सेना के लड़कांे को बताया कि आज आंदोलन स्थगित रहेगा। उत्तेजित लड़के लड़कियां निराष हो गए थे। एक लड़के ने बताया भी कि आज मेडम नए अन्दाज में थीं । ज्यादा मुस्करा भी रही थीं । आज दीदी की हेयर स्टाइल कुछ अलग थी। बाहर जाकर लड़के कह रहे थे आज तो दीदी कुछ और ही थीं । विजया को मां की झिड़की याद आ गई। वह रात को उसके पैर हिला कर होष में आने के लिए कहती -देख कैसे सो रही है। उसका चादर एक तरफ हो जाता था और गाउन अपने आप घुटनों से ऊपर चला जाता था। उसने हाथ से छू कर देखा तो सच में गाउन ऊपर खिसका हुआ था । विजया तत्काल अपने घुटने मोड़ लेती और गाउन को खींच कर पैरांे पर डाल लेती । आज मां नहीं है और न कोई देखने वाला लेकिन उसे लगता है कि अंधेरा उसके पैर देख रहा है।
वह रात के निगेटिव में से बाहर निकल आई थी ।
जिस वास्तविकता के सामने खड़ी थी युवाओं का हुजूम उसके सामने था और धूप उसके सर पर चमक रही थी । पसीने की बूंदें उसकी लाल त्वचा पर मोती की तरह सजी थीं । उसके चेहरे पर आंदोलन की गरिमापूर्ण चमक थी। इस समय वह नेहरू चैक पर अपने आंदोलन को संचालित कर रही है । बहुत सारे लड़के विजया के चारों और खड़े हैं । भरा भरा माहौल बनता जा रहा है । कोई बहुत मसक्कत के बाद आता और दीदी के पैर छू कर अपने आप को धन्य करता । ऐसे लड़कों के सिरों पर विजया बहुत पवित्रता से हाथ रखती थी। सेना के लड़के भी आ गए थे - ‘दीदी हुक्म दो.‘ किसी ने अपने संगठन के नषे में चूर होकर कहा। किसी ने कहा-‘अब विजय हमारी है।’
विजया मुस्कुरा रही थी । लड़के और कुछ लड़कियां उनके आदेष का इंतजार कर रहे थे । सेल फोन विजया के कान से सटा था । कुछ लड़के कोलतार की कालिख डिब्बांे में लटकाए हुए थे । बहुत सोच समझ कर विजया दीदी ने अपने साथ लगे हुजूम को आदेष दिया। उन्होंने हाथ से इषारा किया । सब लोगों ने चिल्लाया -चलो। और हुजूम विजया के साथ आगे बढ़ने लगा। लड़कियां उत्साह में चीख रही थीं। लड़के विजय भाव से सांड़ों की तरह इधर उधर देख कर झूम रहे थे जैसे वे कोई अपराजेय सांड़ हैं। मानो उन्हें कोई पोस्टर दिखेगा और उसे अपने सीगों फंसा कर फाड़ डालेंगे । संस्कृति के खिलाफ किसी भी पोस्टर को देखने लायक नहीं बचने दंेगे । हूजुम धीरे धीरे मस्ती में बढ़ रहा था । बीच में से किसी ने नारा दिया
गंदे पोस्टर गंदगी हैं।
जुलूस चिल्लाया-गंदे पोस्टर गंदगी हंै। ठोस और भारी आवाजों का गोला उठा और आसमान में जाकर बिखर गया। व्यापारी, दुकानदार, ठेले वाले और ग्राहक सहम गए। दुकानदारों ने अपना सामान अंदर खींचते हुए कहा-कुछ भी हो सकता है। वे अंदर से किसी अनहोनी के डर से भर कर अपने काम में लग गए। हूजूम अपना ध्यान खींचने में सफल रहा था । व्यापारियों के चेहरों की निष्चिंत्ता खत्म हो चुकी थी । इस बार फिर किसी ने नारा दिया ‘-औरत के वस्त्र - औरत की षान हैं।‘
‘फैषन परेड नहीं चलेगी । नहीं चलेगी नहीं चलेगी।‘
आसमान गूंज गया। इसी चैराहे पर एक फिल्म के विज्ञापन पर कालिख पोत दी गई। विजया दीदी ने देखा कि पोस्टर में अण्डर बियर पहने एक लड़की डांस कर रही है । छातियां और कमर पूरी तरह दिख रही हैैंै । नाभि खुली है । हिप उभरे हंै । विजया को लगा यह अब सब उससे नहीं हो सकेगा . ‘वह सुंदरम से प्यार का इजहार करना चाहती है । सार्वजनिक लाइफ का मतलब यह तो नहीं होता कि अपनी ही मिट्टी कुटवाते रहो । यह सब पार्टी के मूर्खों की बकबास है । ‘
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ष् ष्षाम की मीटिंग में उसने पार्टी को बता दिया कि ‘ ऐसे आंदोलन अब वह नहीं कर सकती । जल्दी ही इनकी दिषा बदली जाना चाहिए । मार्डन सोसायटी में अच्छा मैसेज नहीं जा रहा ।‘
अध्यक्ष महोेदय के सामने थोड़ी सी तू तू मैं मैं हुई । किसी ने कहा था- ‘दिषा ही बदल दो , साब दिषा ही आड़े आ रही है तो दिषा ही बदल दो ।‘ कुछ लोग मुस्कुराए थे । ज्यादातर मेंबर चुप ही रहे थे ।
अध्यक्ष महोदय ने मीटिंग के अंत में कहा -‘ तुम्हें बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार रहना चाहिए ।‘
विजया ने दूसरे दिन सुंदरम को फोन लगा कर कहा- ‘मैं अब इस काम से मुक्त हो रही
हूं । तुम कल अपनी कार लेकर आना. कहीं लंच पर चलेंगे।‘
लेकिन सुदर्षन रिजिड था । उसने रूखे स्वर में कहा- ‘जो बड़ी जिम्मेदारी तुमको बताई गई है , उसका कुल मतलब इतना है कि तुमसे प्रदेष महिला संस्कृति प्रकोष्ठ छीना जा रहा है।‘
‘-तब भी तुम षाम को आना तो । विजया के चेहरे में उत्साह की ध्वनी थी ।‘
‘-यार चार साल तुमको राजनीति करते हो गए . लेकिन इतना भी तमीज नहीं आया । राजनीति में ऐसी बातों के लिए बहुत ज्यादा गुंजाइष नहीं होती । आ सको तो मेरी लाबिंग करने पार्टी कार्यालय आ जाना , मैं प्रदेष महासचिव बनना चाहता हूं ।‘
विजया ने आहिस्ता से फोन के चोगे को रख दिया। निष्वांस भर कर कमरे के बीच में खड़ी हो गई । उसने महसूस किया - धरती की चट्टानें पिघल पिघल कर उसके सीने में जमती जा रही हैं। अब उसके हृदय में कुछ भी जीवित और हरा नहीं है। सब ओर जम चुकी चट्टानों का काला पठार फैल गया। वह फिर आइने के सामने खड़ी थी जेैसे आइना उसके दुखों का सबसे बड़ा साथी रहा है। उसने अपने चेहरे को देखा । चेहरा पीले कागज की तरह सपाट औेर भावहीन हो चुका था । उसने अपनी ही आंखों में देखा , वे आइने में छुपे हुए अपने हजारों खिलखिलाते अक्सों से ताकत ले रही थीं। एक तरफ सीने में जम चुका पठार था और दूसरी तरफ उसको पिघलाते हुए पुराने संघर्ष और हंसियां थीं । उसकी मुठ्ठियां ताकत से बंध गईं। अपना संघर्ष खुद ही तो जीतना है। आंखें बंद करके सोचने लगी . सुषीला को जगा कर कहा - ‘मैं पार्टी कार्यालय जा रही हूं । देर हो सकती है।‘ विजया जब बाहर निकली तो बहुत तेजी से परदे को हटाया . विजया के जाने के बाद उभरे शून्य में सुशीला खडे़ खड़े हिलते हुए परदे को देखती रही ।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
111 rajeev nagar vidisha

मंगलवार, 9 जून 2009

आसमां



मैं आसमाँ ले के आया था
तुमने बाहों को फैलाया ही नहीं

मैं रातभर सितारे बनता रहा
तुमने पलकों को उठाया ही नहीं

क्या शिकायत कि शाम नहीं देखी
तुमने खिड़की का परदा हटाया ही नहीं

कोई चेहरा मायूस नहीं था यहाँ
तुमने किसी के लिए मुस्कुराया ही नहीं

सर तो हजार झुके थे शहर में
किसी सर को तुमने झुका समझा ही नहीं

चाय



तुम चुप थीं और मैं भी चुप था
हमारे बीच चाय का कप था
धूप का सुनहरा रंग लिए
उसकी सुनहरी किनार पर
तुम्हारी आँखें चमक रही थीं

बहुत देर तक चाय
जिÞंदगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
फिर तुमने उँगली से चाय पर जमी परत हटा दी
मैंने कप को उठा कर ओंठों से लगा लिया


आधा बिस्किट



तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है

तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में

तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार

आधा बिस्किट



तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है

तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में

तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार

सोमवार, 25 मई 2009

इंतजार का शाल


तुम इंतजार का शाल लपेट कर शाम की गज़ल सुनती हो
अकेले छत पर बैठ कर सुहानी हवाओं में क्या सुनती हो

अपनी उंगलियों में छुपाए हुए रोशनी के फूल खोलो
बहुत जादुई हैं उंगलियां इनमें क्या राज गुनती हो

चेहरे में रोशनी भरी मुस्कान की इंतहा चमक है
क्या अपनी उंगलियों से रोशनी के कन चुनती हो

क्यों अकेले खड़ी हो खिड़कियों में अंधेरे चुके हैं
बल्ब की मद्विम रोशनी में कौन सा अहसास बुनती हो

हम दिन और रात को अपना बना के रखते हैं
तुम अपनी ज़िन्दगी को क्यों पल पल रूनती हो

रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति

गुरुवार, 21 मई 2009

इस शहर में

इस शहर में बहुत रोशनियां हैं चलो अंधेरे में चांद देखेंगे
किसी पुल पे बैठ कर चांदनी के शहर का ख्वाब देखेंगे

यहां लड़कियां चांद और सूरज की किरनों से बनी हैं
चलो उस गली में कोई वाह देखेंगे

इस शहर में भटकने के लिए बहुत मोड़ हैं
हम हर मोड़ पर खड़े होकर नई राह देखेंगे

इस शहर की दुनिया में कोई बात वाला है जरूर
हमें मिले न मिले वो हम हर शख्स में शाह देखेंगे

तुम मोड़ लो अपना चेहरा किसी अजनबी जैसे
देखना हमको है हम रोज़ तुममें नई चाह देखेंगे

सोमवार, 18 मई 2009

मैंने इश्क की कीमत

ये कविता को मै ग़ज़ल का तमगा नही पहनना चाहता हूँ। मेरी ग़ज़ल लिखने की कुव्वत नही है। दूसरी बात ये है की अब हिन्दी कविता को अपने आस्पास को ख्याल मै लेकर कविताई करना होगी... मै ये प्रयास कर रहा हूँ कि ... अपने कवि मित्रो से भी आग्रह कर रहा हूँ.....कि आइये हिन्दी कविता को us लय की तरफ़ ले चलें...जिसमे आधुनिकता बोध और रंजकता एक साथ हों..
आपका
रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति


मैंने इश्क की कीमत चुका दी
जिंदगी मोहब्बत की रियासत में मिला दी

जरा गौर से देख कर पहचान लो
मैंने इक किरण सूरज में मिला दी

जो बात मैं कह नहीं सका अभी तक
उसे मैंने तुम्हारी आवाज में मिला दी

तुम्हें पुकारता हूं मेरा दिल झील हो गया है
प्यार के किनारों पे तुम्हारी कमी खलती है

बुधवार, 6 मई 2009

साहित्य में खेमों का खेल

खेमे की अवधारणा कोई नई और अजूबी नहीं है। दुनिया में हर विधा और कला में एक खास मानसिकता, व्यवहार और वैचारिकता के लोगों का धु्रवीकरण होता हैं। तुलसी ने भी खेमेबाजों से त्रस्त होकर कहा था- न मुझे किसी से एक लेना और न दो देना है। मुझे किसी को बेटी नहीं व्याहना है और न किसी के यहां बेटा। मुझे स्वतंत्रता से अपने काव्य में लीन रहने दो। मध्यकाल में एक लेखक वर्ग राज दरबारी था और एक वर्ग स्वतंत्र। राज दरबारियों में बिहारी जैसे कवि थे तो उसी युग में सूर और कबीर भी थे।
अगर हम आज की बात करें तो उस तरह के राज दरबार और सामंत नहीं रहे लेकिन अब सत्ता और सरकारें ये भूमिका निभा रही हैं। अधिक सटीक यह होगा कि खेमेबाज लेखक कलाकार स्वयं भी सत्ता के सामने अपनी योग्यता साबित करके लाभ पाने की कोशिश करते हैं। सत्ता को ऐसे लोगों को जरूरत होती है वह इनका संस्कृति के टूल्स की तरह इस्तेमान न भी करे तो कुछ लोग खुद ही टूल्स बन जाते हैं। जरूरी नहीं कि खेमेबाज सत्ता का विरोध न करें बल्कि वे तो विरोध को भी लाभ का हथियार बना लेते हैं। ऐसा कहना सच नहीं है कि खेमे में रह कर अच्छा नहीं लिखा जा सकता, कई अच्छे लेखक खेमों में हैं तो कई अच्छे लेखक बाहर भी हैं। लेकिन इतना तो है कि खेमे में रहने से व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना आहत होती है।

बलराम गुमास्ता ने हमें खेमेबाज लेखकों की कुछ विशेषताएं बताते हुए कहते हैं -

खेमेबाजों के नेता साहित्य और राजनीति का वर्णसंकर होते हैं। ये आपस में एक दूसरे पर बयानबाजी करते हैं और एक दूसरे की सामाजिक साहित्यिक हैसियत बढ़ाते हैं। इस सत्य को ये जानते हैं जैसे दिल्ली में नामवर सिंह और राजेंद्र यादव। तो भोपाल के लोगों को हम सब जानते ही हैं। खेमेबाजी सिर्फ भोपाल में ही नहीं हो रही बल्कि ये गांवों कस्बों में भी पहुंच चुकी है।
दो खेमेबाजों का आपस का काम नहीं रुकता, उनके सारे काम होते हैं। चाहे वह पुरस्कार हो या फिर फैलोशिप।
दो खेमेबाजों के बीच में उनके चम्मच पिसते हैं। हालांकि अगर उनमें कोई वैचारिक और साहित्यिक रूप से मजबूत होता है तो वह कुछ ही दिनों में अपने ही बास से ताल ठोक लेता है।
खेमेबाज सबसे पहले एक वैचारिक आवरण ओढ़ता है। एक आंदोलन चलाता है। उसके नाम पर अपनी एक पार्टी खड़ी करता है। उसमें पुरस्कार, कार्यक्रम और आयोजन जैसी चीजें लेखक की प्रतिभा के हिसाब से नहीं होतीं बल्कि सर्मथन की गहराई और पिछल्लग्गूपन की निष्ठा से तय होती हैं।
हर खेमेबाज चाहता है कि उसके खेमे में कुछ अच्छे लेखकों
खेमे में रहने वाले लेखकों को यह भी न माना जाना चाहिए कि वे एक दूसरे खेमे के कट्टर दुश्मन होते हैं।
सभी खेमे के लेखक अपने गुणधर्मों के तहत महीने साल में कई बार मिलते रहते हैं, ताकि पता चल सके कि कौन क्या कर रहा है या उसकी क्या जुगाड़ है।
वे समारोहों एवं एक दूसरे खेमे के कार्यक्रमों में नहीं जाते।
खेमेबाज लेखक एकांत में सभी खेमे बाजों से अच्छे से मिलता है।
आपस में रोटी बेटी आदि की बातें भी हो जाती हैं।
सार्वजनिक रूप से किसी दूसरे खेमे के लेखक की तारीफ या विषेशता नहीं बताता।
एक खेमे के लोग किसी दूसरे खेमे के व्यक्ति से दोस्ती हो तो उसका विरोध करते हैं।
अक्सर कभी कभी खेमेबाजी , शीत युद्ध में भी बदल जाती है।

भोपाल की बात करें तो यहां भी लेखक सत्ता और लाभ (जो आर्थिक कम, ख्याति और साहित्यक महत्व पाने का अधिक होता है।) के लिए लेखकों में घमाशान होती रहती है। साहित्यकारों से किए एक सर्वे में भोपाल के दस सबसे बड़े खेमेबाजों का पता चला है। ये हैं -
कमलाप्रसाद
व्यवहारिक हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव, वसुधा के अघोषित कार्यकारी संपादक, दो पुरस्कारों के प्रमुख निणायक हैं। लेखकों की राष्ट्रीय राजनीति में माहिर। ज्ञानरंजन को खेमेबाजी में पछाड़ा। आजकल विजयी मुद्रा में। मध्यप्रदेश में लेखकों का सत्ताकेंद्र संचालित कर रहे हैं। हालांकि जब से भाजपा की सरकार है, थोड़े कमजोर महसूस कर रहे हैं। इसके बाद भी केंद्रीय संस्थानों में गहरी पैठ के चलते अपने खेमे के लेखकों को फायदा दिला देते हैं। हालांकि कमला प्रसाद से मिलने पर महसूस होता है कि वे अकेले हैं और बहुत मुश्किल में हैं। बहुत ही ठंडे दिमाग और संयत शब्दों में बातचीत करते हैं।
संगठन और पुरस्कार जिनके माध्यम से अपना खेमा संचालित करते हैं- वसुधा, प्रलेस, हिंदी साहित्य सम्मेलन, वागीश्वरी पुरस्कार और भवभूति अलंकरण।
प्रोफेसर और डीलिट की उपाधियां। अब तक पांच आलोचना पुस्तकें और कई राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय मंचों पर भाषण।

कैलाशचंद्र पंत
ने अपने कैरियर की शुरूआत छठे सातवें दशक में एक छोटे से अखबार के प्रकाशित करने और राजभाषा प्रचार समीति के साधारण सदस्य के रूप में की थी। राजभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष उस समय बैजनाथ जी हुआ करते थे। उनके वारिस के रूप में आपको हिंदी भवन का संस्थान मिला। आज राजभाषा प्रचार समिति के अंतर्गत कई भवन संचालित हैं। श्रीपंत भोपाल और मध्यप्रदेश में प्रगतिशील उर्फ कमला जी वाले खेमे के समानांतर सत्ता की स्थापना कर चुके हैं। हालांकि साहित्यिक महत्व और सक्रियता के हिसाब से इस खेमें में लेखकों की कमी है। पंत जी का कार्यलय अपनी गति से चलता है। व्यवहार में कैलाशचंद्र पंत शांत और शालीन हैं। अपने विरोधी खेमे के कार्यक्रमों में नहीं जाते। उनके करीब होने पर महसूस होता है कि वे अनुभवों का विशाल भंडार लिए हैं।
संगठन और पुरस्कार जिनके माध्यम से अपना खेमा संचालित करते हैं- राजभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन, पावस व्याख्यान माला और राजभाषा प्रचार समिति के पुरस्कार।

राजेश जोशी
बेहद मिलनसार, गर्मजोशी से मिलते हैं। अगर आप उनके साथ किसी कार्यक्रम में भोपाल से बाहर जाते हैं तो वे उस शहर की गलियों
सड़कों और गुमठियों पर घूमते मिल जाऐंगे। शायद कोई ऐसी सिगरेट की तलाश करते हुए जो शायद क्यूबा में बनी हो। अगर आप साथ हैं, और चाहें तो उनके साथ कस लगा सकते हैं। शहर, कविता और पुस्तकों पर चर्चा करते हुए।
एंक युवा आलोचक के अनुसार राजेश जोशी खेमेबाज नहीं हैं बल्कि खेमों का उपयोग अपने लिए करते हैं। उन्होंने शायद कोई संगठन अभी तक नहीं बनाया है। कहा जाता है कि जब कोई संगठन बनता है तो वे उससे जुड़ जाते हैं। उनकी कार्यशैली पर चर्चा करते हुए एक इंजीनियर कवि ने बताया कि पहले वो किसी भी संगठन के पदाधिकारी के लिए धकियाते हैं और फिर एप्रीसियेट करते हैं।


संतोष चौबे
संतोष चौबे का अपना कोई ब्रांडेड खेमा नहीं है लेकिन उनके मित्रों का एक विशाल समूह देश भर में है। वे आत्मर्स्फूत तरीके से अपनी रचनात्मक सत्ता को दर्शाते हैं। उनके चार से अधिक उपन्यास और कहानी संग्रह आ चुके हैं।


राजुरकर राज
भोपाल के कई साहित्यकारों के लिए राजुरकार राज मंच प्रदाता हैं तो कई के लिए एक साहित्य की राजनीति करने वाले। राजुरकर राज दुष्यंत कुमार स्मृति पांडुलिपि संग्रहालय के माध्यम से साहित्यिक गतिविधियां संचालित करते हैं। लेखकों के समाचारों से पूर्ण आप एक पत्रिका भी संचालित करते हैं। भोपाल के कुछ लेखकों का आरोप है कि वे उसी लेखक को अधिक प्राथमिकता देते हैं जो उनके काम आए या काम में आने वाला हो सकता हो। संग्रहालय कई अलंकरण प्रदान करता है। हालांकि एक युवा लेखक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राजुरकर के संस्थान को प्रतिभाशाली लेखकों से अधिक मतलब नहीं है। वे सिर्फ उन्हीं को अपने यहां बुलाते और सम्मानित करते हैं जो उनके खेमे को मजबूती प्रदान करे।

मुकेश वर्मा
मुकेश वर्मा की अब तक तीन कहानी संग्रह आ चुके हैं। आपके बारे में मनोज कुलकर्णी ने एक समारोह में कहा था कि मुकेश वर्मा अपने आप में संस्था हैं। मुकेश वर्मा के बारे में एक आलोचक का कहना है कि वे सौम्य हैं और बेहद सौम्य तरह की खेमेबाजी करते हैं। इसे व्यक्तिगत खेमेबाजी भी कहा जा सकता है। कहानी पाठ जैसे उनके आयोजन इसी तर्ज का हिस्सा हैं।

हरि भटनागर
हरि भटनागर का खेमा संख्याबल में बड़ा नहीं है लेकिन वे पूरे देश की साहित्यिक राजनीति करने का मन बना चुके हैं। लेखकों का आरोप है कि उन्होंने साहित्य अकादमी का उपयोग उन्होंने खुद को प्रोजेक्ट करने में किया है। श्री भटनागर ने कुछ वर्ष पहले कुछ दो मैगजीन इसीलिए निकालीं हैं कि दूसरे खेमेबाज उनकी साहित्यिक उपेक्षा न कर सकें। संगत और रचना समय ने उनको कई मायनों में बचाया है। भोपाल के कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने एक अंतराष्ट्रीय खेमे का निर्माण किया है। इनमें लंदन के तेजेंद्र शर्मा और रूस के अनिल जनविजय हैं।

अशोक बाजपेयी
आशोक बाजपेयी अब भोपाल की जगह दिल्ली में रहते हैं लेकिन उनके विचारों और खेमे को मजबूती देते हैं उनके पुरानी साथी। भोपाल का भारत भवन उनका सबसे बड़ा मंच था। हालांकि भगवत रावत कहते हैं कि अशोक बाजपेयी ने जो भी किया हो उन्होंने लेखकों के सम्मान और उनकी प्रतिष्ठा को कायम किया है। एक विशाल कला जगत को उन्होंने अपनी साहित्यिक कला से उचित मान दिया है। आशोक बाजपेयी एक सोसलिस्ट प्रजातांत्रिक की तरह अपना खेमा संचालित करते हैं।
आशोक बाजपेयी आज भी भोपाल की साहित्यिक विरादरी को जब तब प्रभावित करते रहते हैं। वे अपने हाथ के पुरस्कार और सम्मान सिर्फ अपने ही लोगों को बांटते हैं। हंस के पूर्व सहायक संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय का आरोप है कि उन्होंने सम्मान का निर्णायक होने के कारण धु्रव शुक्ल को एक सम्मान इसलिए दिया था कि वे उनके ग्रुप के हैं। यह बात आशोक बाजपेयी ने स्वीकार भी की थी।

लीलाधर मंडलोई विभिन्न संस्थानों को सहायता एवं दुष्यंत कुमार संग्रहालय के माध्यम से अपना ग्रुप संचालित करते हैं। आजकल दिल्ली में हैं। आ
रामप्रकाश त्रिपाठी जनवादी लेखक संघ द्वारा

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अन्य छोटे खेमेबाज
कैलाश मड़वैया बुंदेली लोक साहित्य के माध्यम से
उर्मिला शिरीष- प्रलेस के माध्यम से

बिना खेमे से जुड़े सक्रिय साहित्यकार
मंजूर एहतेशाम- राष्ट्रीय स्तर के उपन्यासकार एवं कहानीकार।
भगवत रावत- खेमों द्वारा सबसे अधिक उपेक्षित। आठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।
मालती जोशी- कहानीकार, कई पुस्तकें प्रकाशित।
रमेश चंद्र -शाह कहा जाता है कि आप खेमा संचालित नहीं करते लेकिन कई राष्ट्रीय खेमों में रहते हैं।
विजय बहादुर सिंह - आपकी कार्यशैली एकला चलो की है। कहा जाता है कि आप युवा साहित्कारों की फौज तैयार करते हैं। कविता एवं आलोचना कई पुस्तकें प्रकाशित। खेमेबाजों को लताड़ लगाते हैं।

खेमे के बारे में मंजूर एहतेशाम के विचार
खेमा इस्तेहार है
खेमे से कोई फायदा तो मुझे नहीं दिखता। मेरा मानना है कि खेमा सिर्फ चार दिन की चांदनी होता है। एक इस्तेहार की तरह है, जिसका असर जल्दी ही खत्म हो जाता है। लोगों को पहचानने में सदियां नहीं लगतीं। आप शुरुआती बढ़त ले सकते हैं लेकिन वह जल्दी ही सिमट जाती है। खेमे कुछ दिनों की राहत आपको दे सकते हैं। बाकी जो आपके दिल में है वह तो आपको ही लिखना होगा। इसलिए जो दिल में हो वही लिखना चाहिए। सारे खेमे एक तरह से ताकत की दवाओं के विज्ञापन की तरह हैं। किसी खेमे से जुड़ना इस्तेहार बाजी से ज्यादा कुछ नहीं है।



शनिवार, 18 अप्रैल 2009

ब्लॉग मित्रो को धन्यबाद


ब्लाग की इस दुनिया में मुझे सच में अच्छा लगा। दरअसल हिंदी के लेखकों में बहुत रेंज नहीं है। मैं अपने बारे में भी यह कह रहा हूं। मुझे कई बार लगा कि जिस गंभीरता को हिंदी का लेखक और कवि गण ओड़े रहता है, वह उसकी किसी कमी को छुपाने का प्रयास है। इस प्रयास को ब्लागर दूर करके एक नया रास्ता बना रहे हैं। मैं अपने सभी ब्लाग मित्रों को धन्यवाद देता हूं। कविता पर जिस तरह की प्रत्ििरक्रयाएं और आशाएं हैं उनसे मुझे खुशी मिली। लगा कि धरती को एक कुटुंब में तकनीक ही बदल रही है।
आप कितना भी तकनीक का रोना रोएं। मेरे अधिकांश प्रगतिशील लेखक कविगण यही करते रहते हैं, को यह पता नहीं है कि आने वाली पीढ़ी के लिए विज्ञान और तकनीक कितना कुछ नया कर रही है। ब्लाग की दुनिया यही तो है।

अखबारों में रहते हुए कई बार मैटर सर्च के दौरान ब्लागरों के झरनों से सामना हुआ। कई ब्लागियों ने मेरी समस्या हल की। एक अच्छी कविता मिली। एक अच्छा संस्मरण, इंटरव्यु और कई अन्य सामग्री मुझे मिली। इस सामग्री को हालांकि बिना अनुमति-सूचना के उपयोग किया। कई बार खबर भी आई। कुछ डर भी कि कोई ब्लागर डंडा लेकर न आ जाए। पर ऐसा नहीं हुआ।

पहली दस प्रतिक्रियांए मुझे अपनी कविता और ब्लाग पर मिली हैं। अभी मैं तकनीकी को कुशलता से यूज नहीं कर पाता, इसलिए टिप्पणियों को प्रकाशित करने में देर हुई। आने वाले वक्त में अपनी कविताओं को पहले ब्लाग में दिया करूंगा।

मैं सब ब्लागरों का दोस्त होना चाहता हूं...

इसी आशा में


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
9826782660

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

स्ट्रीट लाइट

रविवार, 12 अप्रैल 2009

गांवों की उजास के चित्र

वीना जैन
उज्जैन यूनिवर्सिटी से फाइन आर्ट में एम ए। ललित कला अकादमी दिल्ली, पार्लियामेंट एनेक्सी, दिल्ली, कोलकाता, नेहरूसेंटर मुंबई,इंडियन अकादमी आॅफ फाइन आर्टस आदि में कला प्रदर्शनियां एवं कलाकृतियों का चयन।


वीना जैन से रवीन्द्र स्वप्निल की बातचीत

आपके चित्रों में गांव बड़ी उजास के साथ आया है? भोपाल में रहते हुए आप गांव से कैसे जुड़ी हैं?
गांव मेरे लिए अनजाने नहीं रहे हैं। मेरा जन्म उज्जैन का है और मैं अपने नाना नानी के यहां अक्सर गांव जाया करती थी। उस समय को बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। करीब पच्चीस साल पहले की यह बात है। उस समय गांव मेरी चेतना में आया था। आज जो गांव है वह वैसा न है और न ही रहा है। अब गांव बहुत बदल गया है। मेरे नाना का गांव भी बदल चुका है। उनका सौंधापन गायब है। इन सालों में मैंने देखा है कि गांव और शहर का अंतर खत्म हो चुका है। वहां अब सब कुछ वैसा ही है जैसा शहर में है।

आज आपके लिए अपने नाना का गांव क्या मायने रखता है
मैं आज भी अपनी ननिहाल के गांव की उस खुश्बू को महसूस करती हूं। उसे अपने जीवन में स्वीकार करती हूं और देखती हूं, कला में उसे पाने की कोशिश करती हूं।

आपके लिए आपका काम क्या है?
इसे बताना एक कठिन काम है लेकिन मैं अपने आसपास से अपने परिवेश से बहुत ही गहराई से जुड़ा महसूस करती हूं। मैं जो भी अपने चारों तरफ देखती हूं वह मेरी कला का हिस्सा हो जाता है। मेरे बचपन में आया हुआ गांव मेरे बहुत ही करीब है। मेरी कलात्मक चेतना के निर्माण में उसका बहुत योगदान है।

आपके जो चित्र यहां प्रदर्शित हो रहे हैं उनकी रचनात्मकता को अपने कैसे सहेजा?
मेरे इन चित्रों में गांव बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर आया है। गांव के बहुत से प्रतीक और सिंबल यहां हैं। मैंने उन्हें स्मृति के रूप में सहेजा है। दूसरी बात ये है कि इन चित्रों के सृजन में मैंने किसी भी तरह का सिंथेटिक कलर का इस्तेमाल नहीं किया है। सारे चित्र चाय, वनस्पति और दूसरे रंगों को मेल से बनाए गए हैं।

आधुनिक कला में इन चित्रों को तकनीकी स्तर पर मान्यता मिलेगी ? तकनीकी स्तर पर प्रयोग किए गए रंगों को फेड होने या खराब होने का डर हो सकता है।
ये रंग खराब या फेड नहीं होंगे। मैंने इनका परीक्षण किया है। इसके अलावा तकनीकी रूप से भी इनको संरक्षित किया गया है। आज कल पेंटिंग्स की दुनिया में तकनीक बेहद एडवांस हो चुकी है। फंगस आदि से बचाने के लिए इन चित्रों पर एक खास प्रकार का पेस्ट किया गया है।

आपकी रंग योजना में पीला सुनहारापन बहुत अधिक है इसका क्या कारण है?
इन चित्रों का बैकग्राउंड है गांव है। गांव की जो उजास होती है, जो सुनहरापन वहां धूप का बिखरता है वह यहां है। गांव का जीवन ही धूप और मिट्टी का जीवन है। यही सब इन चित्रों में है। वैसे कहीं कहीं आप इन चित्रों में धूसर रंग का पुट भी देख सकते हैं।

आप आजकल नया क्या कर रही हैं?

अभी जो चित्र मैंने बनाए हैं वे पेपर पर हैं अब आगे उनको कैनवस पर लाने का प्रयास कर रही हूं। पेपर की अपनी सीमाएं हैं जबकि कैनवस आपको अलग तरह का स्पेश देता है।
रंगों की गंध...रंगों के व्यवहार....
डॉ. मंजूषा गांगुली
हमारी यादों से जुड़ी होती है रंगों की गंध। चौंकिये नहीं... जी हां सुगंध भरे रंग और उन रंगों से जुड़ी हुई हमारी स्मृतियां इनका बेहद गहरा संबंध हमारे जीवन में होता है। यह गंध तीव्र, मृदु मधुर और मोहक तो होती है बल्कि मादक भी होती है। कैसे? ... आइये जानते हैं- इन रंगों को...
जहां श्वेत रंग से देव गृह की गंध आती है। वहीं पीले नीले गुलाबी और नारंगी रंग मादक होते हैं गहरा हरा तीव्र गंधी तो सफेदी लिये पीला (क्रीम रंग) सौम्य गंधी होने का आभास दिलाता है। जामूनी, सुनहरा और भूरा रंग विक्षिप्त होते हैं।
ताम्रवर्णी रंग से तीक्ष्ण और कस्तूरी के समान गंध का स्त्रवन होने का आभास होता है। यानि कि यह गंध, नाद और उनकी दृक संवेदनाओं में से महसूस होने वाले स्पर्श आदि सभी हमारी स्मृतियों से चिरकाल संबंधित होते हैं! इसी कारण जिस संस्कृति ने हमें पाला पोसा होगा, उस संस्कृति से भी इन समूचे रंग संस्कारों का संबंध है।
हम यदि शांति से सुन सकें तो हमसे रंग बातचीत करने लगते हैं। फीके रंग फुसफुसाते हैं। मध्यम रंग बहुत सा कुछ बता जाते हैं। तेजस्वी रंगों का कोलाहल वहां होता है। एक ही गहरा रंग यदि प्रमुख रूप से केनवस पर धीमे- धीमे फैलाया जाए तो वह सागर की मानिंद गंभीर ध्वनि का निर्माण करता है। हल्के रंग मंद- मंद बहने वाली बयार की तरह हुंकार देते महसूस होते हैं। रंग गाते भी हैं। जल्लोश भी वे करते हैं और कभी कभी ‘मूक’ रहकर रंग सुनते भी हैं। रंगों में से संगीत का सनातन ‘सा’, शांति का मूलभूत नाद भी प्रवाहित होता रहता है। इस संगीत को निर्मित करने वाले रंग को आँखों से सुना जाना चाहिये। रंगों का आक्रोश देखते- देखते सुनाई हेता है।
भिन्न भिन्न रंगों के व्यवहार एक दूसरे से नितांत जुदा होते हैं। उनका स्वभाव भिन्न होता है। जैसे पीला रंग सहज सुंदर, स्वागत भरा तो है ही साथ ही वह किसी भी रंग में सहज ही मिल जाता है। उसके साथ ही वह उस रंग का व्यक्तित्व समग्ररूप से बदल भी देता है। ‘नीला रंग ’ ठंडी तासीर लिये होता है। लेकिन बेहद जिद्दी.... उका सभी से मेल होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिससे इसकी दोस्ती होगी उसे वह अपना कर ही लेता है। इसके बावजूद अपने अस्तित्व पर जरा भी आंच नहीं आने देता।
तांबई ‘भूरा’ रंग मर्दानी बाना रखता है, वह जहां भी होगा वहां उसी का राज होता है। ‘लाल’ रंग निष्ठुर, गर्वीला लेकिन अत्यंत सरल, प्रामाणिक रंग है। लाल रंग को वैसे तो एडजस्टमेंट मान्य नहीं होती।हरा, भूरा और काला रंग स्वभाव से जरा विचित्र होते हैं। नसवारी भूरा और काला ये रंग अत्यंत शकी (शक करने वाले) होते हैं। वही हरा रंग अड़ियल और ईष्यालु होता है। गुलाबी, नारंगी ये रंग सौम्य होते हैं, बल्कि जिनके साथ होते हैं उन्हीं की मर्जी से व्यवहार करने वाले होते हैं। जामुनी रंग उग्र और थोड़ा सा एकांत प्रिय, मतलबी और बेपरवाह होता है। काई जैसे हरे रंग पीछे रहने वाले रंग होते हैं, कम बोलने वाले भी इन्हें कह सकते हैं। श्वेत रंग होता है सौम्य, प्रसन्न व्यक्तित्व वाला साथ ही अतिशय प्रामाणिक लेकिन अपनी धाक रखने वाला। इस श्वेत रंग से सभी का समान रिश्ता होता है। उतनी ही निकटता लेकिन धमक भी उतनी ही।
पीला रंग सभी रंगों का जनक है। इसीलिये वह सभी रंगों को समेट लेता है। श्वेत रंग के आगे सभी रंग नतमस्तक हो जाते हैं। अंधकार यह उनकी जननी है। श्वेत रंग के मानिंद ही काला रंग भी प्रत्येक रंग की चिंता करता है। गहरी रंगतें काले रंग से ही जन्मती हैं। चित्र में नजर आने वाले केवल काला अंधकार अनेक रंगों को अपने पंखों के नीचे छुपाकर धीरे- धीरे एक एक रंग को उजागर करता अपना समृद्ध स्वरूप प्रकट करता है। रंगों का यह रहस्य कृष्ण वर्ण में संग्रहित है।
मूलभूत तीन रंग लाल, नीला और पीला जब एक दूसरे का सहारा लेते हैं तो अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। किसी भी रंग का उत्साह उनकी शुद्ध अवस्था में ही होता है। देखा जाए तो सभी रंग मूलत: सुंदर शुद्ध होते हैं लेकिन शुद्धता, सौंदर्य आदि उनके आसपास के रंगों पर निर्भर करती है। रंगों की सुसंगति उनका रहस्य उनकी माया अगाध है। रंगों का जादू जबर्दस्त होता है। रंग भ्रम पैदा करते हैं रंगों का अंतरंग बाहिरंग उनका क्रोध उनकी विधि छटाएं उनकी मृदुता उनका उतावला स्वभाव, घन गंभीर स्वभाव अचंभित करता है तो कहीं उनकी वैराग्य भरी तटस्थता... सभी कुछ मायावी खेल ही लगता है।
रंगों की गिनती असंभव है। तभी तो आकाश के रंग, पृथ्वी के रंग, विविध वृक्षों, पत्तियों, पशु पक्षियों और मनुष्य के रंग, समुद्र के गहरे रंग, पर्वतों, हरी घास पर हिलते नन्हें- नन्हें रंग, तितलियों के पंखों के रंग कण, त्वचा के मृदु मुलायम रंग, वर्षा की धाराों से झिरते रंग, विविध प्राणियों के केशओं (रोम) के रंग, सर्पों के कुल के रूपहले रंग, केले के फूल के रंग पक्षियों की ग्रीवा और पंखों के रंग... ये सभी रंग चित्रकार को आव्हान देते हैं। इन्हें देख पाना हर एक के बस की बात नहीं है। इसलिये चित्र जगत में रंग एक अतिशय महत्व का संस्कार है। रंग यह एक संस्कृति है। रंग की यदि पहचान किसी को हो जाये अथवा समझ में आ जाए तो निश्चित ही उसे अनपेक्षित परिणाम और उनकी विराट हस्ती का अनुभव तत्काल हो जाएगा। रंग विहीन जीवन की कल्पना कभी की जा सकती है क्या? रंगों के अभाव में हमारे एक भी स्वप्न की पूर्ति हो ही नहीं सकती... शायद आप भी यह मान रहे होंगे.....


2
सिन्धी कविता
कौन हूं मैं?
आईने में नजर आता यह चेहरा
मेरा नहीं है।
बरसों से एक साधारण जिंदगी जीती मैं?
शायद
वह भी मैं नहीं हूं
मैं कौन हूं?
रात की गहरी खामोशी में
बेचैनी से करवटें बदलते
अंधेरे में चारों ओर निहारते
मेरे भीतर उठता है वह सवाल
मुझे आज तक नहीं मिला है
जिसका जवाब
न मैं सिन्ध मैं पैदा हुई हूं
न मैंने देखी है सिन्ध
फिर अपने बारे में सोचने पर क्यों महसूस होती है
सिन्ध की जमीन की खुश्की
धूसर आसमान की उदासी?
जैसे
पूरनमासी के चांद की ओर निहारता है सागर
वैसे ही
मेरे विचारों का ज्वार
धुकधुका देता है मुझे
तेज हो जाता है मेरे रक्त का प्रवाह भुरभुराने लगती हूं मैं अपने आप
कभी- कभी
मैं चाहती हूं
मेरे रक्त में बहती सिन्धु नदी की तेज धारा
समेट ले मुझे अपने आप में
जला दे भले ही अपनी उस आग में
जिसकी लपटों से भयभीत होते थे सिंध के निवासी
या मेरा भुरभुराता वजूद भी
बन जाये मोअन जोदड़ों का हिस्सा
न मैं सिन्धु नदी का प्रवाह हूं
न मोअन जोदड़ों का कोई हिस्सा
न ही समायी है मुझमें
शाह लतीफ की किसी नायिका की आत्मा
फिर
किससे बिछड़ा है मेरा वजूद?
कौन हूं मैं?

रश्मि रमानी

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

लड़की भूल जाती है



लड़की कागज रख कर भूल जाती है
जैसे शाम दिन को भूल जाती है

उसके हाथों का कागज धूप का टुकड़ा है
लड़की धरती पर धूप का टुकड़ा भूल जाती है

मेरी दुनियायी समझाइशों पे हंस कर
लड़की अपना गम भूल जाती है

सीखती नहीं दुुनिया जमाने के फसाने
आंखों में आंसू सजा कर सब भूल जाती है


सोमवार, 12 जनवरी 2009

meri nai kavita

e me zismm mene tumhe kitna thaka dala

subah se lekr sham tak liye liye firta hoon