मंगलवार, 9 जून 2009

चाय



तुम चुप थीं और मैं भी चुप था
हमारे बीच चाय का कप था
धूप का सुनहरा रंग लिए
उसकी सुनहरी किनार पर
तुम्हारी आँखें चमक रही थीं

बहुत देर तक चाय
जिÞंदगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
फिर तुमने उँगली से चाय पर जमी परत हटा दी
मैंने कप को उठा कर ओंठों से लगा लिया


1 टिप्पणी:

  1. बहुत देर तक चाय /ज़िन्दगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
    अच्छी पंक्तियाँ हैं रविन्द्र

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