सोमवार, 25 मई 2009
इंतजार का शाल
तुम इंतजार का शाल लपेट कर शाम की गज़ल सुनती हो
अकेले छत पर बैठ कर सुहानी हवाओं में क्या सुनती हो
अपनी उंगलियों में छुपाए हुए रोशनी के फूल खोलो
बहुत जादुई हैं उंगलियां इनमें क्या राज गुनती हो
चेहरे में रोशनी भरी मुस्कान की इंतहा चमक है
क्या अपनी उंगलियों से रोशनी के कन चुनती हो
क्यों अकेले खड़ी हो खिड़कियों में अंधेरे आ चुके हैं
बल्ब की मद्विम रोशनी में कौन सा अहसास बुनती हो
हम दिन और रात को अपना बना के रखते हैं
तुम अपनी ज़िन्दगी को क्यों पल पल रूनती हो
रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति
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