शनिवार, 18 अप्रैल 2009

ब्लॉग मित्रो को धन्यबाद


ब्लाग की इस दुनिया में मुझे सच में अच्छा लगा। दरअसल हिंदी के लेखकों में बहुत रेंज नहीं है। मैं अपने बारे में भी यह कह रहा हूं। मुझे कई बार लगा कि जिस गंभीरता को हिंदी का लेखक और कवि गण ओड़े रहता है, वह उसकी किसी कमी को छुपाने का प्रयास है। इस प्रयास को ब्लागर दूर करके एक नया रास्ता बना रहे हैं। मैं अपने सभी ब्लाग मित्रों को धन्यवाद देता हूं। कविता पर जिस तरह की प्रत्ििरक्रयाएं और आशाएं हैं उनसे मुझे खुशी मिली। लगा कि धरती को एक कुटुंब में तकनीक ही बदल रही है।
आप कितना भी तकनीक का रोना रोएं। मेरे अधिकांश प्रगतिशील लेखक कविगण यही करते रहते हैं, को यह पता नहीं है कि आने वाली पीढ़ी के लिए विज्ञान और तकनीक कितना कुछ नया कर रही है। ब्लाग की दुनिया यही तो है।

अखबारों में रहते हुए कई बार मैटर सर्च के दौरान ब्लागरों के झरनों से सामना हुआ। कई ब्लागियों ने मेरी समस्या हल की। एक अच्छी कविता मिली। एक अच्छा संस्मरण, इंटरव्यु और कई अन्य सामग्री मुझे मिली। इस सामग्री को हालांकि बिना अनुमति-सूचना के उपयोग किया। कई बार खबर भी आई। कुछ डर भी कि कोई ब्लागर डंडा लेकर न आ जाए। पर ऐसा नहीं हुआ।

पहली दस प्रतिक्रियांए मुझे अपनी कविता और ब्लाग पर मिली हैं। अभी मैं तकनीकी को कुशलता से यूज नहीं कर पाता, इसलिए टिप्पणियों को प्रकाशित करने में देर हुई। आने वाले वक्त में अपनी कविताओं को पहले ब्लाग में दिया करूंगा।

मैं सब ब्लागरों का दोस्त होना चाहता हूं...

इसी आशा में


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
9826782660

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

स्ट्रीट लाइट

रविवार, 12 अप्रैल 2009

गांवों की उजास के चित्र

वीना जैन
उज्जैन यूनिवर्सिटी से फाइन आर्ट में एम ए। ललित कला अकादमी दिल्ली, पार्लियामेंट एनेक्सी, दिल्ली, कोलकाता, नेहरूसेंटर मुंबई,इंडियन अकादमी आॅफ फाइन आर्टस आदि में कला प्रदर्शनियां एवं कलाकृतियों का चयन।


वीना जैन से रवीन्द्र स्वप्निल की बातचीत

आपके चित्रों में गांव बड़ी उजास के साथ आया है? भोपाल में रहते हुए आप गांव से कैसे जुड़ी हैं?
गांव मेरे लिए अनजाने नहीं रहे हैं। मेरा जन्म उज्जैन का है और मैं अपने नाना नानी के यहां अक्सर गांव जाया करती थी। उस समय को बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। करीब पच्चीस साल पहले की यह बात है। उस समय गांव मेरी चेतना में आया था। आज जो गांव है वह वैसा न है और न ही रहा है। अब गांव बहुत बदल गया है। मेरे नाना का गांव भी बदल चुका है। उनका सौंधापन गायब है। इन सालों में मैंने देखा है कि गांव और शहर का अंतर खत्म हो चुका है। वहां अब सब कुछ वैसा ही है जैसा शहर में है।

आज आपके लिए अपने नाना का गांव क्या मायने रखता है
मैं आज भी अपनी ननिहाल के गांव की उस खुश्बू को महसूस करती हूं। उसे अपने जीवन में स्वीकार करती हूं और देखती हूं, कला में उसे पाने की कोशिश करती हूं।

आपके लिए आपका काम क्या है?
इसे बताना एक कठिन काम है लेकिन मैं अपने आसपास से अपने परिवेश से बहुत ही गहराई से जुड़ा महसूस करती हूं। मैं जो भी अपने चारों तरफ देखती हूं वह मेरी कला का हिस्सा हो जाता है। मेरे बचपन में आया हुआ गांव मेरे बहुत ही करीब है। मेरी कलात्मक चेतना के निर्माण में उसका बहुत योगदान है।

आपके जो चित्र यहां प्रदर्शित हो रहे हैं उनकी रचनात्मकता को अपने कैसे सहेजा?
मेरे इन चित्रों में गांव बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर आया है। गांव के बहुत से प्रतीक और सिंबल यहां हैं। मैंने उन्हें स्मृति के रूप में सहेजा है। दूसरी बात ये है कि इन चित्रों के सृजन में मैंने किसी भी तरह का सिंथेटिक कलर का इस्तेमाल नहीं किया है। सारे चित्र चाय, वनस्पति और दूसरे रंगों को मेल से बनाए गए हैं।

आधुनिक कला में इन चित्रों को तकनीकी स्तर पर मान्यता मिलेगी ? तकनीकी स्तर पर प्रयोग किए गए रंगों को फेड होने या खराब होने का डर हो सकता है।
ये रंग खराब या फेड नहीं होंगे। मैंने इनका परीक्षण किया है। इसके अलावा तकनीकी रूप से भी इनको संरक्षित किया गया है। आज कल पेंटिंग्स की दुनिया में तकनीक बेहद एडवांस हो चुकी है। फंगस आदि से बचाने के लिए इन चित्रों पर एक खास प्रकार का पेस्ट किया गया है।

आपकी रंग योजना में पीला सुनहारापन बहुत अधिक है इसका क्या कारण है?
इन चित्रों का बैकग्राउंड है गांव है। गांव की जो उजास होती है, जो सुनहरापन वहां धूप का बिखरता है वह यहां है। गांव का जीवन ही धूप और मिट्टी का जीवन है। यही सब इन चित्रों में है। वैसे कहीं कहीं आप इन चित्रों में धूसर रंग का पुट भी देख सकते हैं।

आप आजकल नया क्या कर रही हैं?

अभी जो चित्र मैंने बनाए हैं वे पेपर पर हैं अब आगे उनको कैनवस पर लाने का प्रयास कर रही हूं। पेपर की अपनी सीमाएं हैं जबकि कैनवस आपको अलग तरह का स्पेश देता है।
रंगों की गंध...रंगों के व्यवहार....
डॉ. मंजूषा गांगुली
हमारी यादों से जुड़ी होती है रंगों की गंध। चौंकिये नहीं... जी हां सुगंध भरे रंग और उन रंगों से जुड़ी हुई हमारी स्मृतियां इनका बेहद गहरा संबंध हमारे जीवन में होता है। यह गंध तीव्र, मृदु मधुर और मोहक तो होती है बल्कि मादक भी होती है। कैसे? ... आइये जानते हैं- इन रंगों को...
जहां श्वेत रंग से देव गृह की गंध आती है। वहीं पीले नीले गुलाबी और नारंगी रंग मादक होते हैं गहरा हरा तीव्र गंधी तो सफेदी लिये पीला (क्रीम रंग) सौम्य गंधी होने का आभास दिलाता है। जामूनी, सुनहरा और भूरा रंग विक्षिप्त होते हैं।
ताम्रवर्णी रंग से तीक्ष्ण और कस्तूरी के समान गंध का स्त्रवन होने का आभास होता है। यानि कि यह गंध, नाद और उनकी दृक संवेदनाओं में से महसूस होने वाले स्पर्श आदि सभी हमारी स्मृतियों से चिरकाल संबंधित होते हैं! इसी कारण जिस संस्कृति ने हमें पाला पोसा होगा, उस संस्कृति से भी इन समूचे रंग संस्कारों का संबंध है।
हम यदि शांति से सुन सकें तो हमसे रंग बातचीत करने लगते हैं। फीके रंग फुसफुसाते हैं। मध्यम रंग बहुत सा कुछ बता जाते हैं। तेजस्वी रंगों का कोलाहल वहां होता है। एक ही गहरा रंग यदि प्रमुख रूप से केनवस पर धीमे- धीमे फैलाया जाए तो वह सागर की मानिंद गंभीर ध्वनि का निर्माण करता है। हल्के रंग मंद- मंद बहने वाली बयार की तरह हुंकार देते महसूस होते हैं। रंग गाते भी हैं। जल्लोश भी वे करते हैं और कभी कभी ‘मूक’ रहकर रंग सुनते भी हैं। रंगों में से संगीत का सनातन ‘सा’, शांति का मूलभूत नाद भी प्रवाहित होता रहता है। इस संगीत को निर्मित करने वाले रंग को आँखों से सुना जाना चाहिये। रंगों का आक्रोश देखते- देखते सुनाई हेता है।
भिन्न भिन्न रंगों के व्यवहार एक दूसरे से नितांत जुदा होते हैं। उनका स्वभाव भिन्न होता है। जैसे पीला रंग सहज सुंदर, स्वागत भरा तो है ही साथ ही वह किसी भी रंग में सहज ही मिल जाता है। उसके साथ ही वह उस रंग का व्यक्तित्व समग्ररूप से बदल भी देता है। ‘नीला रंग ’ ठंडी तासीर लिये होता है। लेकिन बेहद जिद्दी.... उका सभी से मेल होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिससे इसकी दोस्ती होगी उसे वह अपना कर ही लेता है। इसके बावजूद अपने अस्तित्व पर जरा भी आंच नहीं आने देता।
तांबई ‘भूरा’ रंग मर्दानी बाना रखता है, वह जहां भी होगा वहां उसी का राज होता है। ‘लाल’ रंग निष्ठुर, गर्वीला लेकिन अत्यंत सरल, प्रामाणिक रंग है। लाल रंग को वैसे तो एडजस्टमेंट मान्य नहीं होती।हरा, भूरा और काला रंग स्वभाव से जरा विचित्र होते हैं। नसवारी भूरा और काला ये रंग अत्यंत शकी (शक करने वाले) होते हैं। वही हरा रंग अड़ियल और ईष्यालु होता है। गुलाबी, नारंगी ये रंग सौम्य होते हैं, बल्कि जिनके साथ होते हैं उन्हीं की मर्जी से व्यवहार करने वाले होते हैं। जामुनी रंग उग्र और थोड़ा सा एकांत प्रिय, मतलबी और बेपरवाह होता है। काई जैसे हरे रंग पीछे रहने वाले रंग होते हैं, कम बोलने वाले भी इन्हें कह सकते हैं। श्वेत रंग होता है सौम्य, प्रसन्न व्यक्तित्व वाला साथ ही अतिशय प्रामाणिक लेकिन अपनी धाक रखने वाला। इस श्वेत रंग से सभी का समान रिश्ता होता है। उतनी ही निकटता लेकिन धमक भी उतनी ही।
पीला रंग सभी रंगों का जनक है। इसीलिये वह सभी रंगों को समेट लेता है। श्वेत रंग के आगे सभी रंग नतमस्तक हो जाते हैं। अंधकार यह उनकी जननी है। श्वेत रंग के मानिंद ही काला रंग भी प्रत्येक रंग की चिंता करता है। गहरी रंगतें काले रंग से ही जन्मती हैं। चित्र में नजर आने वाले केवल काला अंधकार अनेक रंगों को अपने पंखों के नीचे छुपाकर धीरे- धीरे एक एक रंग को उजागर करता अपना समृद्ध स्वरूप प्रकट करता है। रंगों का यह रहस्य कृष्ण वर्ण में संग्रहित है।
मूलभूत तीन रंग लाल, नीला और पीला जब एक दूसरे का सहारा लेते हैं तो अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। किसी भी रंग का उत्साह उनकी शुद्ध अवस्था में ही होता है। देखा जाए तो सभी रंग मूलत: सुंदर शुद्ध होते हैं लेकिन शुद्धता, सौंदर्य आदि उनके आसपास के रंगों पर निर्भर करती है। रंगों की सुसंगति उनका रहस्य उनकी माया अगाध है। रंगों का जादू जबर्दस्त होता है। रंग भ्रम पैदा करते हैं रंगों का अंतरंग बाहिरंग उनका क्रोध उनकी विधि छटाएं उनकी मृदुता उनका उतावला स्वभाव, घन गंभीर स्वभाव अचंभित करता है तो कहीं उनकी वैराग्य भरी तटस्थता... सभी कुछ मायावी खेल ही लगता है।
रंगों की गिनती असंभव है। तभी तो आकाश के रंग, पृथ्वी के रंग, विविध वृक्षों, पत्तियों, पशु पक्षियों और मनुष्य के रंग, समुद्र के गहरे रंग, पर्वतों, हरी घास पर हिलते नन्हें- नन्हें रंग, तितलियों के पंखों के रंग कण, त्वचा के मृदु मुलायम रंग, वर्षा की धाराों से झिरते रंग, विविध प्राणियों के केशओं (रोम) के रंग, सर्पों के कुल के रूपहले रंग, केले के फूल के रंग पक्षियों की ग्रीवा और पंखों के रंग... ये सभी रंग चित्रकार को आव्हान देते हैं। इन्हें देख पाना हर एक के बस की बात नहीं है। इसलिये चित्र जगत में रंग एक अतिशय महत्व का संस्कार है। रंग यह एक संस्कृति है। रंग की यदि पहचान किसी को हो जाये अथवा समझ में आ जाए तो निश्चित ही उसे अनपेक्षित परिणाम और उनकी विराट हस्ती का अनुभव तत्काल हो जाएगा। रंग विहीन जीवन की कल्पना कभी की जा सकती है क्या? रंगों के अभाव में हमारे एक भी स्वप्न की पूर्ति हो ही नहीं सकती... शायद आप भी यह मान रहे होंगे.....


2
सिन्धी कविता
कौन हूं मैं?
आईने में नजर आता यह चेहरा
मेरा नहीं है।
बरसों से एक साधारण जिंदगी जीती मैं?
शायद
वह भी मैं नहीं हूं
मैं कौन हूं?
रात की गहरी खामोशी में
बेचैनी से करवटें बदलते
अंधेरे में चारों ओर निहारते
मेरे भीतर उठता है वह सवाल
मुझे आज तक नहीं मिला है
जिसका जवाब
न मैं सिन्ध मैं पैदा हुई हूं
न मैंने देखी है सिन्ध
फिर अपने बारे में सोचने पर क्यों महसूस होती है
सिन्ध की जमीन की खुश्की
धूसर आसमान की उदासी?
जैसे
पूरनमासी के चांद की ओर निहारता है सागर
वैसे ही
मेरे विचारों का ज्वार
धुकधुका देता है मुझे
तेज हो जाता है मेरे रक्त का प्रवाह भुरभुराने लगती हूं मैं अपने आप
कभी- कभी
मैं चाहती हूं
मेरे रक्त में बहती सिन्धु नदी की तेज धारा
समेट ले मुझे अपने आप में
जला दे भले ही अपनी उस आग में
जिसकी लपटों से भयभीत होते थे सिंध के निवासी
या मेरा भुरभुराता वजूद भी
बन जाये मोअन जोदड़ों का हिस्सा
न मैं सिन्धु नदी का प्रवाह हूं
न मोअन जोदड़ों का कोई हिस्सा
न ही समायी है मुझमें
शाह लतीफ की किसी नायिका की आत्मा
फिर
किससे बिछड़ा है मेरा वजूद?
कौन हूं मैं?

रश्मि रमानी