रविवार, 28 मार्च 2010
अब आए मोदी मुददे पर
ग ुजरात दंगा 2002 के मामले में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर शुरू से आरोप लगाए जाते रहे हैं। ये आरोप दंगा पीढ़ितों, राजनीतिक दल, समाजिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के द्वारा दर्ज कराए गए हैं। मोदी ने अपने ऊपर लगे इन आरोपों का लगातार खंडन किया है। हालांकि पहली बार विशेष जांच दल न्यायिक अभिकरण के सामने मोदी झिझक के बाद पेश हुए। जांच दल ने कुछ मामलों में ही नरेंद्र मोदी से पूछताछ की है। ताजा पूछताछ दंगे में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी की पत्नी जकिया नसीम और सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा लगाई गई याचिका पर हुई। अभी तक मोदी न्यायालय के सामने सीधे आने से बचने की भरपूर कोशिश कर रहे थे, जिसमें वे कुछ हद तक सफल भी रहे। हालांकि दंगों से संबंधित दो सम्मनों के बाद नरेंद्र मोदी को सुप्रीम कोर्ट से अधिकार प्राप्त विशेष जांच दल के सामने आना पड़ा। टीम ने उनसे करीब नौ घंटे चली पूछताछ में 70 सवाल किए। एसआईटी इन सवालों के मार्फत दंगों के नीच दबी कहानी को खोल कर तरतीब देगी। हालांकि यह न्यायालयीन प्रक्रिया का हिस्सा है। पूछताछ के बाद नरेंद्र मोदी ने स्वीकार किया है कि भारत का संविधान और कानून सर्वोच्च है और वे भारत के संविधान से बंधे हए हैंं। क्या नरेंद्र मोदी नहीं जानते थे कि जब दंगे हो रहे थे तब भी वे मुख्यमंत्री के रूप में एक संवैधानिक पद पर थे। अब मुख्यमंत्री मोदी को सम्मन मिलने के बाद उनसे हुई पूछताछ उन लोगों को जरूर राहत मिली जो मोदी को इन मामलों में संदिग्ध की तरह देखते रहे हैं। आने वाले कल में और बातें सामने आएंगी। इस मामले में खास बात ये है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी भारतीय न्याय व्यवस्था से जोड़ कर देख रहा है।
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी
कपिल तिवारी से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत
आपने पहला लोकरंग आयोजित किया था। उस समय इसका स्वरूप क्या था और कैसी परिस्थिति थीं? आपके उद्देश्य क्या थे?
देश के गणतंत्र दिवस पर देश की लोक सर्जना में कोई काम नहीं होता था। हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी। हम जन सामान्य के लिए काम करना चाहते थे। संस्कृति सिर्फ कुछ सौ लोगों के लिए ही हो यह मैं नहीं चाहता था। इसलिए ऐसा कुछ प्लान करना जरूरी था जिसमें लोग चेतना का समावेश हो। आम लोगों को उसमें आत्मीय आमंत्रण हो। जहां प्रवेश के लिए कोई सुरक्षा जांच न करे, कोई प्रवेश पत्र नहीं हो। सब आएं सबकी संस्कृति में, ये सब चीजें काम कर रही थीं उस समय।
मध्यप्रदेश के बारे में क्या कहेंगे?
मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति दोहरी भूमिका में है। संस्कृति को भूगोल से अलग नहीं किया जा सकता है। मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति नई भूमिका में है। उसके चारों ओर विभिन्न संस्कृतियों का भूगोल है। प्रांत हैं। अब जरूरी था कि संस्कृति के मामले में सबसे पहले मध्यप्रदेश को संवेदित किया। इसके बाद हम राष्ट्र और अपने पड़ोसी देशों की ओर गए। आज देश ही नहीं हम एशिया का सबसे बड़ा मेला इसे बनाने की कल्पना संजोए हैं। क्योंकि पड़ोसी के बिना सिर्फ आपकी संस्कृति नहीं हो सकती।
लोगों को उनकी अपनी ही संस्कृति से जोड़ने के लिए आपने परंपरा से क्या लिया?
इसके लिए मैं अपनी परंपराओं की तरफ गया और मेरा ध्यान शताब्दियों से चल रहे लोक आयोजन ‘मेलों’ की तरफ गया। सोचा क्यों न गणतंत्र पर संस्कृतियों का मेला आयोजित किया जाए। इसमें उस बात का प्रतिकार भी शामिल था कि कला संस्कृति को एसी हाल और पांच सौ लोगों तक सीमित कर दिया था, वह दूर हो। समाज और कला का एक समवेत मैं बनाना चाहता था। जिसमें एक गणतंत्र की एकता की भावना की सामुदायिकता की भावना का संचार हो। लोक की सृजनात्मकता का समावेश हो। इन सारी चीजों के लिए मेला ही मुझे भारतीय लोक परंपरा में सबसे जीवंत उपाय लगा। आप देख रहे हैं, लोक संस्कृतियों का मेला।
यह मेला वैसा तो नहीं है जो हमारे कस्बों में होते रहे हैं?
हां नहीं है, लेकिन इसकी कल्पना कस्बों से अलग कला का मेला था। मैं समझ रहा था कि भारतीय समाज में मेलों की चाहत कभी कम नहीं होगी। आरंभ से ही मेले के रूप में अपने देश की साधारण जनता के असाधारण अनुभवों को समवेत करना चाहता था। हमारी जनता को प्रारंभ से ही पहचाना नहीं था। गणतंत्र में लोक को आजादी से ही बाहर रखा गया। अब मुझे काम करना था और लोक आयोजन को जनता में समारोहित करना चाहता था।
आपने पहला लोकरंग आयोजित किया था। उस समय इसका स्वरूप क्या था और कैसी परिस्थिति थीं? आपके उद्देश्य क्या थे?
देश के गणतंत्र दिवस पर देश की लोक सर्जना में कोई काम नहीं होता था। हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी। हम जन सामान्य के लिए काम करना चाहते थे। संस्कृति सिर्फ कुछ सौ लोगों के लिए ही हो यह मैं नहीं चाहता था। इसलिए ऐसा कुछ प्लान करना जरूरी था जिसमें लोग चेतना का समावेश हो। आम लोगों को उसमें आत्मीय आमंत्रण हो। जहां प्रवेश के लिए कोई सुरक्षा जांच न करे, कोई प्रवेश पत्र नहीं हो। सब आएं सबकी संस्कृति में, ये सब चीजें काम कर रही थीं उस समय।
मध्यप्रदेश के बारे में क्या कहेंगे?
मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति दोहरी भूमिका में है। संस्कृति को भूगोल से अलग नहीं किया जा सकता है। मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति नई भूमिका में है। उसके चारों ओर विभिन्न संस्कृतियों का भूगोल है। प्रांत हैं। अब जरूरी था कि संस्कृति के मामले में सबसे पहले मध्यप्रदेश को संवेदित किया। इसके बाद हम राष्ट्र और अपने पड़ोसी देशों की ओर गए। आज देश ही नहीं हम एशिया का सबसे बड़ा मेला इसे बनाने की कल्पना संजोए हैं। क्योंकि पड़ोसी के बिना सिर्फ आपकी संस्कृति नहीं हो सकती।
लोगों को उनकी अपनी ही संस्कृति से जोड़ने के लिए आपने परंपरा से क्या लिया?
इसके लिए मैं अपनी परंपराओं की तरफ गया और मेरा ध्यान शताब्दियों से चल रहे लोक आयोजन ‘मेलों’ की तरफ गया। सोचा क्यों न गणतंत्र पर संस्कृतियों का मेला आयोजित किया जाए। इसमें उस बात का प्रतिकार भी शामिल था कि कला संस्कृति को एसी हाल और पांच सौ लोगों तक सीमित कर दिया था, वह दूर हो। समाज और कला का एक समवेत मैं बनाना चाहता था। जिसमें एक गणतंत्र की एकता की भावना की सामुदायिकता की भावना का संचार हो। लोक की सृजनात्मकता का समावेश हो। इन सारी चीजों के लिए मेला ही मुझे भारतीय लोक परंपरा में सबसे जीवंत उपाय लगा। आप देख रहे हैं, लोक संस्कृतियों का मेला।
यह मेला वैसा तो नहीं है जो हमारे कस्बों में होते रहे हैं?
हां नहीं है, लेकिन इसकी कल्पना कस्बों से अलग कला का मेला था। मैं समझ रहा था कि भारतीय समाज में मेलों की चाहत कभी कम नहीं होगी। आरंभ से ही मेले के रूप में अपने देश की साधारण जनता के असाधारण अनुभवों को समवेत करना चाहता था। हमारी जनता को प्रारंभ से ही पहचाना नहीं था। गणतंत्र में लोक को आजादी से ही बाहर रखा गया। अब मुझे काम करना था और लोक आयोजन को जनता में समारोहित करना चाहता था।
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सोमवार, 26 अक्तूबर 2009
झील पर तीन कवितायें jheel par teen kavitayen
झील -1
झील और मैं
ओ झील तुम वह नहीं रहीं
जो थीं मेरी आंखों में कभी
मैं तुम्हारे किनारों पर
न जाने किसका इंतजार करता था
तुम्हारा प्यार लिए हुए
शायद मैं भी बदल गया हूं
मेरे रिश्ते तुमसे टूट गए
मैं क्या था तुम्हारे सामने
मैं क्या हूं तुम्हारे सामने
शहर की तरह तुम्हारी लहरों को
ग्रसता हुआ एक धुंआ
झील -2
झील और सुंदरता
ओ झील तुम शहर की सुंदरता थीं
तुम्हारी लहरें तुम्हारे लहराते बाल
तुम थीं लहराती
तुम थीं वक्त की दोस्त
तुमने ओड़ी थी हरियाली की चुनर
तुम्हारे किनारों पर थी फुलकारी गोट
अब मैं गवाह हूं
एक शहर की सबसे बड़ी त्रासदी का
मेरा दुख है मेरे आंसुओं से
तुम्हारे किनारों पर कुछ पैदा नहीं होता
झील -3
ओ मेरी झील
ओ मेरी झील
मैं वक्त के साथ घूमता रहा
दुनिया की हसीन वादियों में और तुम
उदास होती गर्इं भोपाल में रहते रहते
तुम सिकुड़ती गर्इं संकोच में
मैंने एक शहर बन कर
तुम्हारे आंचल में घर बनाया
अपनी छत से तुम्हे सूखते देखा
तुम्हें उदास होते देखा
ओ झील लहराओ
तुम्हारे लहराने से लहराएगा मेरा शहर
लहराएंगे पंक्षी लहराएंगे पार्क
ओ झील अपने किनारों
मेरे और मेरे शहर के अपराध माफ करना
मैं तुम्हारे किनारों का साथी हूं
मैं तुम्हारा कवि हूं
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
झील और मैं
ओ झील तुम वह नहीं रहीं
जो थीं मेरी आंखों में कभी
मैं तुम्हारे किनारों पर
न जाने किसका इंतजार करता था
तुम्हारा प्यार लिए हुए
शायद मैं भी बदल गया हूं
मेरे रिश्ते तुमसे टूट गए
मैं क्या था तुम्हारे सामने
मैं क्या हूं तुम्हारे सामने
शहर की तरह तुम्हारी लहरों को
ग्रसता हुआ एक धुंआ
झील -2
झील और सुंदरता
ओ झील तुम शहर की सुंदरता थीं
तुम्हारी लहरें तुम्हारे लहराते बाल
तुम थीं लहराती
तुम थीं वक्त की दोस्त
तुमने ओड़ी थी हरियाली की चुनर
तुम्हारे किनारों पर थी फुलकारी गोट
अब मैं गवाह हूं
एक शहर की सबसे बड़ी त्रासदी का
मेरा दुख है मेरे आंसुओं से
तुम्हारे किनारों पर कुछ पैदा नहीं होता
झील -3
ओ मेरी झील
ओ मेरी झील
मैं वक्त के साथ घूमता रहा
दुनिया की हसीन वादियों में और तुम
उदास होती गर्इं भोपाल में रहते रहते
तुम सिकुड़ती गर्इं संकोच में
मैंने एक शहर बन कर
तुम्हारे आंचल में घर बनाया
अपनी छत से तुम्हे सूखते देखा
तुम्हें उदास होते देखा
ओ झील लहराओ
तुम्हारे लहराने से लहराएगा मेरा शहर
लहराएंगे पंक्षी लहराएंगे पार्क
ओ झील अपने किनारों
मेरे और मेरे शहर के अपराध माफ करना
मैं तुम्हारे किनारों का साथी हूं
मैं तुम्हारा कवि हूं
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
जिंदगी का महल
दिल की आंच में निराशा को पकाया है
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है
प्यार के गुलाबी लैंप लगाए हैं
स्वागत के कालीन बिछाए हैं
सुबह की धूप का रंग चढ़ाया
अपने अहंकार को मेहराबों में बदला
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है
बगीचे में विचारों के पौधे लगे हैं
शुभकामनाओं के फूल खिल रहे हैं
मेरा महल हजार कमरे से बना है
हर कमरा कमल की पंखुरी है
मेरे जीवन महल में द्वार बड़ा छोटा है
जो आएंगे गीत गाते हुए
जिंदगी का महल उन्हें सौंपता रहूंगा
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है
प्यार के गुलाबी लैंप लगाए हैं
स्वागत के कालीन बिछाए हैं
सुबह की धूप का रंग चढ़ाया
अपने अहंकार को मेहराबों में बदला
मेरे दोस्त देखो ऐसे
मैंने जिंदगी का महल बनाया है
बगीचे में विचारों के पौधे लगे हैं
शुभकामनाओं के फूल खिल रहे हैं
मेरा महल हजार कमरे से बना है
हर कमरा कमल की पंखुरी है
मेरे जीवन महल में द्वार बड़ा छोटा है
जो आएंगे गीत गाते हुए
जिंदगी का महल उन्हें सौंपता रहूंगा
बता मैं सड़क की तरफ क्यों देखती हूं
वह कली और फूल के बीच में कहीं रहती थी। यूं कि उसका चेहरा फूलों और कलियों के बीच की सुंदरता में कहीं महकता था। जैसे ईश्वर ने उसे बनाते हुए यथार्थ के साथ थोड़ी सी कल्पना डाल दी थी। आंखों ओठों और गालों पर वैसा ही परिवर्तन फैला रहता जैसा फूलों से भरी शाख के चारों तरफ होता। उसे मैं तो मित्रो कहता था. मगर मेरे दोस्त- ‘यार क्या कली है!’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे. उनके इस संबोधन को लेकर मै अंदर से ंिचंतित हो जाता था मगर उसने शिकायत नहीं करता था. हमारी तिकड़ी चौकड़ी का एक हिस्सा मनोज का विचार अलग था। वह कहता था कि यह लड़की मेंटली रिटार्टिड है. क्योंकि यह छत पर गमलों के बीच बिना हिले खड़ी रहती है और गप भी सुना दी कि एक दिन मैंनें उसे गमले में उगी हुई लड़की की तरह देखा. उस दिन उसके बालों से पानी के मोती टपक रहे थे, उस पर किसी ने उस पर सूर्य-अर्ध्य का चढ़ाया हो... हम तीनों चारों दोस्त अक्सर सुबह उठते और नौ बजे तक गली के एंगल पर खड़े हो जाते। करने को कुछ था नहीं। पढ़ाई ऐसे चलती थी जैसे सरकारी कालेज। हम तो प्रायवेट कालेज में थे। हमें पता था कि कालेज द्वारा एवेलेबल नोट्स की बिना पर परीक्षा की जंग जीत जाएंगे। हम पैरोडी भी बनाते थे- जीत जाएंगे हम जीत जाएंगे हम, नोट्स अगर संग हैं... दीपेश ने कहा ये पुरानी बात है। तुम आज की बात करो. यार मित्रो इज एकदम सनफ्लावर. आज मैंनें उसे छत पर सुबह की धूप में चेहरे को झुकाए हुए बालों को लहराते हुए देखा था. वह हंसती जैसी दीपावली का अनार झलक आया हो. मैंनें उस पर अपना गुस्सा उतारते हुए कहा -वह गुस्सा होती तो मई की धूप का टुकड़ा लगती. सुबह छत पर जाती तब दोनों ओर गमलों की बीच महकती तुलसी की तरह लगती. उदास होती तो शाम के धुंधलके में घिरा हुआ फूल हो जाती। इस सब बातों के बीच यह बता दूं कि अब वह कली यानि मित्रो इस दुनिया में नहीं है. लेकिन इसलिए उसकी कहानी खत्म नहीं हुई. जब कोई इस दुनिया से कहीं चला जाता है तो क्या उसकी कहानी खत्म नहीं हो जाती ? क्योंकि व्यक्ति चला जाता है लेकिन उससे जुड़ा उसका मित्र मंडल और उसके बारे में सोचने वाले लोगों में उस आदमी की कहानी जिंदा रहती है. मित्रों के बारे में भी यही बात है. हम दोस्त उसके बारे में इस तरह से बातें किया करते थे. उसके बारे में और उसके आसपास के बारे में इत्मीनान से जानते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह एक कस्बे की लड़की थी. जैसे कि छोटे शहर होते हैं. छोटे शहर में एक मुख्य सड़क होती है. शहर की बाकी गलियां मुख्य सड़क की दासी सहचरी और सहेलियों की तरह उसे घेरे रहती हैं छोटी गली के बाशिंदे बड़ी गली की उपमा देकर अपने आप पर ताना कसते हैं कि वो गली कितनी अच्छी है. बड़ी गली के लोग मुख्य सड़क के लिए कहते हैं सारा कुछ उसी सड़क के किनारे हो रहा है. मुख्य सड़क के निवासी अपने से बड़े शहर की उपमा देकर अपने कस्बे के लोगों वस्तुओं सड़क़ों भवनों साफ सफाई नेतागिरी को तुच्छ ठहराते हुए जीते हैं. मित्रो भी यही सब किया करती थी. वह किताबों कहानियों ओर टीवी सीरियलों को देख कर अपने कस्बे की तुलना करती थी. बड़े घरों बड़े शहरों वाले माता पिता घर कुटुम्ब गली और अपने आपको कम या ज्यादा ठहराती. उसका कुल मकसद यह था कि उसे और उसकी सहेलियों को कोई बड़े शहरों की लड़कियों से कम करके क्यों आंकता है. मित्रो नाराज होकर अपनी मम्मी से कहती-ह्यह्यहओ ! तुम्हारे जैसो कोई नहीं करै मम्मी. तुम जरा जरा सी बातें लै कै..... अन्वि की मम्मी बिलकुल टोका टाकी नहीं करें.ह्यह्य मम्मी दहाड़ती-ह्यह्यदेख तू मेरी सरीगत किसी अन्वि की मम्मी से मत करू कर. तू हमें तो पागल समझती है. हम तेरे भले के लिए टोकते हैं.ह्यह्य ह्यह्यहमें ऐसो भलो नहीं चाहिए.ह्यह्य मित्रो के चेहरे पर कड़वाहट की परत चढ़ जाती थी. मां बेटी दो दिशाओं की तरह एक घर में घूमने लगती थीं . कुछ देर में विभाजन स्वत: मिट जाता जैसे दो कमरों की हवा दरवाजा खुलने के बाद एक हो जाती है. शाम होते ही मित्रो छत पर आ जाती . कमरे की तरह दिन की घुटन को हटाने के लिए खुली छत पर गहरी सांसों को सीने में भरती. उसकी सहेली सिमी ने एक दिन टोका था-ह्यह्यऐसी सांसें लेती है जैसे दूसरे दिन के लिए भर रही है.ह्यह्य मित्रो कहती-ह्यह्यताजी हवा है न.ह्यह्य सिमी कहती ह्यह्यकल बंद थोड़ी हो जाएगी.ह्यह्य मित्रो कोई उत्तर नहीं देती बल्कि सूरज को एक टक देखने लगती. ह्यह्यक्या हो गया.ह्यह्य सिमी टोकती. मित्रो पूछती -ह्यह्यबता मैं सड़क के तरफ क्यों देखती हूं.ह्यह्य सिमी चैंक जाती. वह सम्हल कर बोली-ह्यह्यकिसी का इंतजार है.ह्यह्य मित्रो सुनते ही हंसने लगी-ह्यह्य...तुम भी यार क्या....प्यार प्यार मुझे चिढ़ होने लगी है. अच्छे कपड़े पहनो तो हर कोई यही कहता है-प्यार करने लगी होगी. कुछ नया करो तो लोगों का अन्दाज प्यार से बाहर निकलता ही नहीं.ह्यह्य ह्यह्यप्यार से बाहर कोई निकले कैसे, घर से बाहर निकलें और निकलने दें तब न. ज्यादा से ज्यादा यहीं छत पर आ सकते हो. मैं अपने घर से तेरे घर पर ही तो आ सकती हंू. मैं और तू यहां से बाहर कहीं गए हैं क्या.. चाहे वो एन.सी.सी का कैंप हो पिकनिक हो या कहीं भी... देश दुनिया देखने को मिले तो प्यार की बातें छूटे. ह्यह्यरहने दे अब ज्यादा मत झाड़ . तू समझदार हो गई है. मित्रो हंसी थी. ह्यह्यहां एक दिन मैं सोच रही थी- अपने यहां के लोग कहीं घूमने नहीं जाते ओैर न जाने देते. ज्यादा से ज्यादा आसपास की शादियों में खाना खाने जरूर चले जाते हैं.ह्यह्य मित्रो सड़क को देख रही थी. मित्रो सड़क देख रही थी. सिमी ने मित्रो को बीच में खींचा. ठोड़ी पकड़ कर पूछा-ह्यह्ययार ये क्या है. ये मैं आज ही नहीं कई बार देख चुकी हूं. तू बोलते हुए बात करते हुए सड़क ही क्यों देखती है. थोड़ी देर पहले तूने पूछा था अब मैं तुझसे पूछ रही हूं कि तू सड़क क्यों देखती है. ह्यह्यतुझे नीचे चलना है.ह्यह्य मित्रो ने स्थिर स्वर में कहा. ह्यह्यमुझे नीचे नहीं चलना है लेकिन ये है कि तू किसका इंतजार करती है. बताती भी नहीं.ह्यह्य ह्यह्यमैं इंतजार तो करती हूं लेकिन किसी प्यार करने वाले का नहीं.ह्यह्यमैं जिसका इंजार करती हूं वह इस सड़क से कभी नहीं गुजरा. ज्यादा नहीे कुछ दिनों से उसकी याद ज्यादा आ रही है. इस छत पर आकर मुझे चैन मिलता हैं. सड़क को देखने से भरोसा आता है. जानती है क्यों, इसलिए कि सड़क पर हर चीज चलती हुई दिखती है. सिमी आंखें फाड़ कर उसे देखने लगी थी. उसकी आंखें सिकुड़ गईं.-ह्यह्य तू पागल हो गई. क्या हो गया तुझे... क्या अनजानी बातें करने लगी.ह्यह्य सिमी दोनों हाथ उसके कंधों पर रख कर देर तक मि़त्रों की आंखों में ताकती रही. जैसे वह उसके इंतजार करने वाले की शक्ल उसकी आंखों में खोजना चाहती थी.ह्यह्यतू समझी नहीं.ह्यह्य मित्रो ने सिमी के हाथों को अपने कंधों से हटाया-ह्यह्यएक बार और तुझे समझाती हूं-ह्यजब मैं छोटी थी...ह्यह्य ह्यह्यअब क्या बड़ी हो गई...ह्यह्य सिमी दादी की तरह बीच में बोली. ह्यह्य...अरे यार ... मेरा मतलब अब से छोटी थी...नानी ने इसी छत पर एक कहानी सुनाई थी. वह थी तो कुछ भी नहीं पर तू सुन ले कि हम दोनों यहां थें। सब लोग टीवी देख रहे थे. चांद खिला हुआ था. आसमान में इक्का दुक्का तारे बच्चों की तरह चमक रहे थे। उधमी बच्चों की तरह वे चांद से बहुत दूर थे. चांद के चारों तरफ धुधला सा एक घेरा था। मैंनें पूछा कि नानी चांद ऐसा क्यों है तो उसने बताया कि वह तुझे देख कर हंस रहा है. नानी ने एक कहानी सुनाई उसमें कुछ भी नहीं था- बस एक लड़का था. वो लड़का बहुत दूर से यहां आ रहा था. उसे हर इंसान प्यार करता था. वो एक राजकुमार था. वह यहां आएगा. इसी सड़क से गुजरेगा. तुझे प्यार करेगा और आसमानों में तुझे ले जाएगा. मैने नानी से पूछा वह कब आएगा? नानी ने कहा...आता होगा एक दो दिन में... दो दिन बाद मैंने पूछा तो नानी ने कहा-ह्यअपन ने कल जो फिल्म देखी थी . वह तो उसमें मर गया.ह्य मैंने नानी से कहा-ह्यपर नानी मुझे तो उसकी याद आने लगी है.ह्य नानी ने कहा यह तो बहुत अच्छा है. अब तू उसका इंतजार कर वह जरूर आएगा. नानी यहां से चली गई। मैंने उससे फोन पर कहा ह्यह्यआप तो मुझे वह लड़का दो आपने मुझे ऐसी कहानी क्यो सुनाई. वह लड़का फिल्म में क्यों मर गया. क्या अच्छे लड़के इस तरह क्यों मर जाते है. तो वो बोलीं-ह्यएक लड़का और है वह बिलकुल साधारण है लेकिन उसे पहचानना मुश्किल है. अब ये मैं उसके बारे में नहीं जानती कि कब वह इस सड़क पर से निकलता है. तुझे चाहिए तो तू रोज देख... कुछ दिनों में तुझे उसकी पहचान आ जाएगी. नानी को मैंनं फिर फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि उनको बुखार आ रहा है. जल्दी ही भगवान उनके लिए आसमान से सीढ़ियां भेज रहा है. एक दिन मम्मी खूब जोर से रोने लगीं. किसी ने मुझे बताया कि तेरी नानी उपर चली गई. मुझे उनकी सीढ़ियों की बात याद आने लगी. मैंने सपने में बहुत लम्मी सीढ़ी देखी जिस पर नानी उपर जा रही हैं. मैं उनको आवाज दे रही हूं लेकिन वे नहीं सुन रही हैं. ह्यह्यअरे तो पगलाती क्यों है. परीक्षा की तैयारी कर.ह्यह्य ह्यह्यलेकिन मुझे उसकी बहुत याद आती है... नानी ने कहा था जिस दिन वह लड़का तुझे मिल जाएगा. उस दिन से मम्मी तुझे डांटना बंद कर देंगी. खूब घूमने जाने देगीं. पापा की पे बढ़ जाएगी. घर के कोने रोशनी से भर जाएंगे. सड़कें और गलियां साफ सुन्दर हो जाएंगी. झुग्गियों की जगह महल बन जाएंगे। लोगों की गरीबी दूर हो जाएगी. आसमान सात रंगों का दिखने लगेगा. तू ओर तेरी सहेलियां और खूबसूरत हो जाएंगी. लेकिन नानी ने कहा था तू उससे प्यार नहीं कर सकती. मैं सच में उससे प्यार नहीं करूंगी.ह्यह्य सिमी आंखें फाड़ कर उसका मुंह देखे जा रही थी. इससे पहले तो उसने मित्रो के बारे में इतना तो नहीं सोचा था. यह कैसी हो गई है. ...मित्रो बोल रही थी-ह्यह्यसिमी वह मुझे नहीं दिखा तो मैं जल्दी ही नीचे गलियों और सड़कों पर खोजने उतर जाउंगी.....ऐसा हुआ. एक दिन मित्रोे बिना बताए कहीं चली गई.
शुक्रवार, 19 जून 2009
पोस्टर
प्रदेष संस्कृति प्रकोप्ठ की महिला षाखा ने आज स्त्रियों के देह प्रदर्षन के खिलाफ षहर के प्रमुख मार्गों पर विरोध प्रदर्षन किया है। इसमें भारी संख्या में नारियों ने हिस्सा लिया । यह षहर में नारियों का ऐतिहासिक प्रदर्षन रहा। महिलाओं और कन्याओं ने संस्कृति के खिलाफ किए जा रहे कार्यों के प्रति एकजुट होकर षासन को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। प्रकोष्ठ की महासचिव सुश्री विजया भारती ने कहा है कि ‘संस्कृति को दूषित करने वाले लोग अब सावधान रहेेंगे। फैषन परेडें आयोजित कराने वाले लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा । सांस्कृतिक कार्यक्रमांे के नाम पर जांघो और स्तनों का प्रदर्षन संस्कृति नहीं है। हम अपने नगर में फैषन परेडें कतइ नहीं होने देंगे।’
ष्षहर के सांध्य अखबार में यह खबर इष्तहार की तरह चमक रही थी । अखबार बरबस ही लोगों का ध्यान खींच रहा था। इस घटना की मौखिक चर्चा पूरे षहर में थी । हां, अखबार में आने पर इसे नया मोड़ मिला गया था । अब लोगों के पास सुश्री विजया का बयान था। यही बयान लोगों के लिए चर्चा का नया मुद्दा बन चुका था।
इस जुलूस के बाद विजया के बारे में कहा जाने लगा कि ‘विजया कभी इस शहर की सीधी सादी लड़की थी । ़़़़़़़ ़ ़़ ़पर अब देखिए ़़ ़़़ ़।‘ मिसेज अंजली ने अखबार रख कर अपनी बेटी से कहा- ‘बेटी !‘ उनकी बेटी ज्योति ने आंखें उठा कर मां की तरफ देखा। ज्योति इससे पहले भी कई बार मां के मुंह से विजया का नाम सुन चुकी थीं। उसकी मां कहा करती थी - ‘इस दुबली पतली लड़की के बारे में इसकी मां बहुत चिचिंत रहती थी।‘ ज्योति ने प्रष्न भरी आखें फिर उठाईं । मां ने उसकी आंखों में देख कर कहा - ‘वही जो पिछले साल अपने यहां आई थी । तेरी कड़ी की खूब तारीफ की थी ।‘
थोड़ी देर ज्योति चुप रह कर बोली -
‘मम्मी विजया के बारे में ऐसे क्यों बता रहीं हो। मैं तो अच्छे से जानती हूं उसे।‘
वह अम्मी की आंखो में ऐसे देख रही थी जैसे कह रही हो आप जो जानती हो वो सवाल और उसका जवाब मुझे मालूम है। मम्मी आगे बोलीं
‘-मेरे स्कूल के सामने से जुलूस निकला । तो मैं दंग रह गई। हे भगवान इतनी औरतें !..और यह विजया! तब मैं जान पाई के ये विजया का कमाल है। मुझे तो इंटर कालेज में इसकी स्पीच को सुन कर लगा था कि ये कुछ करेगी । तब ये इंटर की परीक्षा दे रही थी। तब से आठ साल हो गए । आठ साल कितने जल्दी बीत जाते हैं । तू कितने साल की हो गई ! विजया से तीन साल छोटी है तू।’ ज्योति ने उल्टे पेंडूलम की तरह अपने पेन को हिलाया - ‘उं उं मैं हूं रनिंग इन टवन्टी वन।’
‘चैबीस की होकर उसने जिले और स्टेट के ऊपर अपना नाम फैला दिया ।‘ मां ने कहा तो ज्योति ने छुपाकर मुंह बिचकाया।
‘मंै उससे मिलवाउंगी तुझे ,मंैने उसे क्लास में पढ़ाया है। तू मिल कर खुष होगी उससे।‘
‘क्यांे ज्योति के मुंह से निकला । गोद में गिरे इस ‘क्यों’ से अम्मी चुप थीं और ज्योति ने अपना मुंह किताबोें मे गड़ा लिया था। थोड़ी देर बाद ज्योति ने मां से कहा -‘मम्मी नाम होना जिंदगी जीने की कसौटी नहीं है। क्या तुम जानती हो मेरा नाम भी मेरी पेंटिंग के साथ जाने किन किन देषों में जा चुका है। लेकिन ये बात मायने नहीं रखती कि किसका कितना नाम है। बड़ी बात ये है कि जिंदगी के साथ आपका हंसना बोलना कितना हो पाता है । किसी से आपने पूछा कि नाम होने से वो जिंदगी भी जी लेता है । या के वो केवल अपने नाम को जीता है।‘
इसके बाद फिर मिसेज अंजली ने ज्याति से कई दिनों तक कुछ नहीं कहा।
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2
विजया सफल विरोध प्रदर्षन के बाद अपने बिस्तर पर लेटी थी । रात गहरा रही थी। बादलों के कालेपन से अंधेरा और भयानक हो उठा था। हल्की गड़गड़ाहट अंधेरे में तैर रही थी । गर्जन इतनी आरोही अवरोही थी कि लगता यह हमारे ही षरीर और मन के तनाव का घर्षण है। दूसरे ही क्षण जब ध्यान षरीर पर जाता तो लगता नहीं यह किसी विषाल घटना से उपजा हुआ षोर है। तभी बिजली चमकती और उस भयानकता का अहसास स्पष्ट हो जाता। विजया को लगा विषाल पहाड़ खिड़की में से उसके सिरहाने आ चुका है । अब वह धीरे धीरे उसके षरीर में प्रवेष कर रहा है । तभी उसके कानों को फाड़ देने वाली गड़गड़ाहट के साथ हल्के ठण्डे पानी के छींटे हवा के साथ चेहरे पर आ पड़े। बाहर बादल टहल रहे थे। किस बादल ने ऐसा किया है । उसे किसी बादल ने छेड़ा है। विजया को लगा कोई लड़का है। वह तमातमा गई। बिजली अब बार बार चमक रही थी।
-कितना अष्लील है सब कुछ।
बिस्तर छोड़ कर उसने खिड़की से बाहर देखा । मीलों लाइटें चमक रही थीं । ठण्डी हवाएं रह रह कर दरवाजे से टकरातीं और विजया के कमरे से होकर बाहर निकल रही थीं । बहुत थोड़ी देर रूककर अपने हाथांे को उठाया । कंधों की जकड़न मिटाकर आइने के सामने आ गई । ओह उसके मुंह से निकला। वह अपने ही वक्षांे और नितम्बों को देख रही थी । वह वापस मेज पर आकर बैठ गई । उसने अपने आप से पूछा- मैं आइने के सामने क्यों चली गई थी। क्या यह भी अष्लील है ? कोई खुद ही अष्लील क्यों हो सकता है । क्या खुद को देखना अष्लील हो सकता है। उसने विचार किया और उठ कर वापस आइने के पास चली गई । उसने अपनी टांगांे को चैड़ा किया । उसने गाउन को ऊंचा किया और देखने लगी । उर्मिला मातोडकर की टागें भी तो ऐसी हैं। आज उसने अपनी टांगें देखीं , वैसी ही थीं । अब इनका क्या करूं । उसे लगा कि ये टांगें उसकी नहीं हैं । उसकी ब्रेस्ट और हिप बडे़ हैं। ये सब किसके लिए हैं। ये किसी और के अंग हैं लेकिन बहुत पहले मुझ ये मेरे मुहं बोले भाई ने कहा था- तेरी गरदन तो गजब की सुराही वाली है। तब अच्छा लगा था लेकिन मां ने सुन लिया था और फिर कहा था ‘- अब तू पूरे गले वाला सूट पहनना षुरू कर दे विजया।‘ वह आइने के सामने मां हो गई और जो प्रतिबिंब दिख रहा था उसे डांटने लगी -ऐसे चैड़ी टांगे करके खड़े नहीं होते और न बैठते । कैसी बैठी है ? ठीक से बैठ।
और आज भी तो यही हुआ न. पार्टी के नेता कैसे उसकी कमर को छूने के कोषिष कर ते हैं । कैसे उसे दबोचते हैं. कभी कभी तो सच में उसे लगता- यह सब कितना गंदा है। एक तरफ हम उनके कहने पर पोस्टर फाड़ें और दूसरी तरफ रात में वे ही हमें दबोचने की कोषिषें करते हैं । मैं नहीं चिल्लाती तो जिलाध्यक्ष गौतम ने तो सुषीला को पकड़ ही लिया था. झिड़कने पर कहता है- ‘कोमन है ये सब ।‘ विजया सारे नेताओं की हरकतों और षब्दों के प्रयोग को हर वक्त पहचान लेती थी. वह जानती थी किस की कामना क्या है । लोग कभी बड़े बन कर, कभी मां की स्टाइल में, कभी दादा की स्टाइल में सामने आते या फिर छोटे होकर हृदय का रस पीने की कोषिष करते । कोई दोस्त बन कर कंधे पर हाथ रखने या लान में टहलने की जिद करता । कभी मुझे सच में डर लगता कि इतने सारे लोग यदि एक हो जाएं तो मेेरे षरीर को कैसा बना देंगे । यदि मैं किसी से दोस्ती करूं तो हर ओर से मेरे ऊपर छाने की कोषिष करते हैं। सब कुछ घृणित और गंदा लगता । विजया प्रतिबिंब पर ध्यान देती है। फिर ठीक से बैठ जाती । अपनी मां को याद करके खुद से ही कहती
‘-दुपट्टा डाल न । अपनी सहेलियों को देख कर कुछ सीख जा । देख सुरूचि अपना पूरा ध्यान रखती है । मजाल क्या है कुछ.........और तू है कि होष ही नहीं रखती अपना।‘
3
धीरे धीरे मुझे भी लगने लगा कि सच यही है। मां और सुरूचि ही सही हैं। क्योंकि तभी भाई भी यही कहता था- ‘विजया को कुछ होष नहीं रहता। दोस्तों के सामने न आया करे -मां इसे बोल दो।‘ वह गुस्से में बुदबुदाता जाता-इसमें बिल्कुल भी मैनर नहीं है। पापा ने आज तक कुछ नहीं कहा । तेज चलने और उछल कर निकलने पर आंखें जरूर दिखा देते थे। मैं समझ जाती कि अब उछलना बंद। मैं बहुत जोर से हंसती तब पापा दूसरे कमरे मे चिल्लाते -‘क्या है विजया ! तब मैं ही ही करते हुए चुप हो जाती । इस सब के बाद भी लगता कि सच्चाई कुछ और है । मन ये स्वीकार ही नहीं करता था।‘
विजया फिर बिस्तर पर लेट गई। हवा की लहरें खिड़की के परदों को झकझोर कर उसको छूने आ जाती थीं । उसने अपना चेहरा चादर से ढक लिया था । फिर भी उसे लग रहा था आसमान की पूूरी नमी उसके षरीर में बैठती जा रही है।
आज सारे दिन जो किया उसका सीन उसकी आखों में तैरने लगा. दुबली पतली लड़कियां उछल कर कालिख पोत रही हैं। पोस्टरों को फाड़ रही हंै। नारे की आवाज बुलंद कर रही थीं। विजया ने किसी पोस्टर को गौर से देखा और चिन्दी चिन्दी होते पोस्टर में खुद को देखने लगी । जहां भी लड़के लड़कियां कालिख पोतते उसे अच्छा लगता लेकिन अब उसके ही कमरे में क्यों लग रहा है कि यह कालिख उसके अंगो पर पुती है। पोस्टरांे को फाड़ते फाड़ते यह क्या देखने लगी । उसे पोस्टरों पर छपी हिप जांघे और डांस के चित्र अच्छे लगने लगे। सामने बिखरा सारा तामझाम अपने ही खिलाफ लगने लगा। वह खुद ही अपने खिलाफ लगने लगी । उसकी गति में ,उसके उत्साह में अनावष्यक उदासी झलकने लगी।
दूसरे दिन उसकी स्पीच में धार नहीं थी जो वह इससे पहले पैदा हो जाया करती थी । आज वह कह रही थी । हमारे विचार से यह सब जल्द बदल जाना चाहिए । हमंे अपने विवेक को जाग्रत करना होगा। आज उसके विचारों में इन पोस्टरों के प्रति भयावहता और डर नहीं था । आज विजया की आंखों में सच को स्वीकार करने के बाद आने वाली चमक झलक रही थी । यह कमजोरी झूठ की हजारों दहाड़ों से ज्यादा ताकतवर थी. षाम को विजया अपने कमरे मे आ चुकी थी । वह पहली बार इस आंदोलन के लिए इतनी उदास और अषांत थी । उसे लगा इस आंदोलन की नीव में कुछ गड़बड़ है । उसे और षामों से आज ज्यादा थकावट महसूस हो रही थी । लेटने से पहले उसने म्युजिक सिस्टम आॅन किया। कुछ देर लेटे रहने के बाद उठ गई । सिस्टम के पास आई और नई सीडी डाल दी । संगीत का असर विजया के मन और षरीर में फैल गया गया। पैरों में थिरकन नषे की तरह चढ़ने लगी थी । विजया डांस करने लगी थी । कांच मंे वह खुद को देख रही थी।
‘अरे जैसी ........‘उसने अपने हिपोेें को फिर हिलाया
षिफान का नाइट सूट उतार दिया और देखा उसका सब कुछ कल वाले पोस्टर जैसा है जिसे उसने एक राड में उलझा कर सड़क पर छितरा दिया था । उसने पोस्टर की तरह खुद को बनाया। आइना बता रहा था कि उसके कंधे हिप कमर और स्तन पोस्टर से भी अच्छे लग रहे थे । उसकी इच्छा हुई कि कोई उसका फोटो खींच ले और सब चैराहांे पर लगा दे । लेकिन यह संभव नहीं था । और वह फिर ए. आर. रहमान के संगीत पर डांस करने लगी।
अचानक रात में ज्योति के फोन की बेल आई। ज्योति उनींदे स्वर में थी -
‘हैलो ,मैं ज्योति हूं ।‘
4
-‘मैं विजया भारती बोल रही हूं। तुम अभी आ जाओ। मैं गाड़ी भेज रही हूं !‘
-‘किसलिए ? ‘
-‘तुम पेंटर हो न, इसलिए।‘
-‘मैं आपका चित्र दोपहर में आकर बनाउंगी। अभी आप बिलकुल तनाव और थकावट से फ्री हों.‘ दूसरे दिन सुबह उसने सेना के लड़कांे को बताया कि आज आंदोलन स्थगित रहेगा। उत्तेजित लड़के लड़कियां निराष हो गए थे। एक लड़के ने बताया भी कि आज मेडम नए अन्दाज में थीं । ज्यादा मुस्करा भी रही थीं । आज दीदी की हेयर स्टाइल कुछ अलग थी। बाहर जाकर लड़के कह रहे थे आज तो दीदी कुछ और ही थीं । विजया को मां की झिड़की याद आ गई। वह रात को उसके पैर हिला कर होष में आने के लिए कहती -देख कैसे सो रही है। उसका चादर एक तरफ हो जाता था और गाउन अपने आप घुटनों से ऊपर चला जाता था। उसने हाथ से छू कर देखा तो सच में गाउन ऊपर खिसका हुआ था । विजया तत्काल अपने घुटने मोड़ लेती और गाउन को खींच कर पैरांे पर डाल लेती । आज मां नहीं है और न कोई देखने वाला लेकिन उसे लगता है कि अंधेरा उसके पैर देख रहा है।
वह रात के निगेटिव में से बाहर निकल आई थी ।
जिस वास्तविकता के सामने खड़ी थी युवाओं का हुजूम उसके सामने था और धूप उसके सर पर चमक रही थी । पसीने की बूंदें उसकी लाल त्वचा पर मोती की तरह सजी थीं । उसके चेहरे पर आंदोलन की गरिमापूर्ण चमक थी। इस समय वह नेहरू चैक पर अपने आंदोलन को संचालित कर रही है । बहुत सारे लड़के विजया के चारों और खड़े हैं । भरा भरा माहौल बनता जा रहा है । कोई बहुत मसक्कत के बाद आता और दीदी के पैर छू कर अपने आप को धन्य करता । ऐसे लड़कों के सिरों पर विजया बहुत पवित्रता से हाथ रखती थी। सेना के लड़के भी आ गए थे - ‘दीदी हुक्म दो.‘ किसी ने अपने संगठन के नषे में चूर होकर कहा। किसी ने कहा-‘अब विजय हमारी है।’
विजया मुस्कुरा रही थी । लड़के और कुछ लड़कियां उनके आदेष का इंतजार कर रहे थे । सेल फोन विजया के कान से सटा था । कुछ लड़के कोलतार की कालिख डिब्बांे में लटकाए हुए थे । बहुत सोच समझ कर विजया दीदी ने अपने साथ लगे हुजूम को आदेष दिया। उन्होंने हाथ से इषारा किया । सब लोगों ने चिल्लाया -चलो। और हुजूम विजया के साथ आगे बढ़ने लगा। लड़कियां उत्साह में चीख रही थीं। लड़के विजय भाव से सांड़ों की तरह इधर उधर देख कर झूम रहे थे जैसे वे कोई अपराजेय सांड़ हैं। मानो उन्हें कोई पोस्टर दिखेगा और उसे अपने सीगों फंसा कर फाड़ डालेंगे । संस्कृति के खिलाफ किसी भी पोस्टर को देखने लायक नहीं बचने दंेगे । हूजुम धीरे धीरे मस्ती में बढ़ रहा था । बीच में से किसी ने नारा दिया
गंदे पोस्टर गंदगी हैं।
जुलूस चिल्लाया-गंदे पोस्टर गंदगी हंै। ठोस और भारी आवाजों का गोला उठा और आसमान में जाकर बिखर गया। व्यापारी, दुकानदार, ठेले वाले और ग्राहक सहम गए। दुकानदारों ने अपना सामान अंदर खींचते हुए कहा-कुछ भी हो सकता है। वे अंदर से किसी अनहोनी के डर से भर कर अपने काम में लग गए। हूजूम अपना ध्यान खींचने में सफल रहा था । व्यापारियों के चेहरों की निष्चिंत्ता खत्म हो चुकी थी । इस बार फिर किसी ने नारा दिया ‘-औरत के वस्त्र - औरत की षान हैं।‘
‘फैषन परेड नहीं चलेगी । नहीं चलेगी नहीं चलेगी।‘
आसमान गूंज गया। इसी चैराहे पर एक फिल्म के विज्ञापन पर कालिख पोत दी गई। विजया दीदी ने देखा कि पोस्टर में अण्डर बियर पहने एक लड़की डांस कर रही है । छातियां और कमर पूरी तरह दिख रही हैैंै । नाभि खुली है । हिप उभरे हंै । विजया को लगा यह अब सब उससे नहीं हो सकेगा . ‘वह सुंदरम से प्यार का इजहार करना चाहती है । सार्वजनिक लाइफ का मतलब यह तो नहीं होता कि अपनी ही मिट्टी कुटवाते रहो । यह सब पार्टी के मूर्खों की बकबास है । ‘
5
ष् ष्षाम की मीटिंग में उसने पार्टी को बता दिया कि ‘ ऐसे आंदोलन अब वह नहीं कर सकती । जल्दी ही इनकी दिषा बदली जाना चाहिए । मार्डन सोसायटी में अच्छा मैसेज नहीं जा रहा ।‘
अध्यक्ष महोेदय के सामने थोड़ी सी तू तू मैं मैं हुई । किसी ने कहा था- ‘दिषा ही बदल दो , साब दिषा ही आड़े आ रही है तो दिषा ही बदल दो ।‘ कुछ लोग मुस्कुराए थे । ज्यादातर मेंबर चुप ही रहे थे ।
अध्यक्ष महोदय ने मीटिंग के अंत में कहा -‘ तुम्हें बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार रहना चाहिए ।‘
विजया ने दूसरे दिन सुंदरम को फोन लगा कर कहा- ‘मैं अब इस काम से मुक्त हो रही
हूं । तुम कल अपनी कार लेकर आना. कहीं लंच पर चलेंगे।‘
लेकिन सुदर्षन रिजिड था । उसने रूखे स्वर में कहा- ‘जो बड़ी जिम्मेदारी तुमको बताई गई है , उसका कुल मतलब इतना है कि तुमसे प्रदेष महिला संस्कृति प्रकोष्ठ छीना जा रहा है।‘
‘-तब भी तुम षाम को आना तो । विजया के चेहरे में उत्साह की ध्वनी थी ।‘
‘-यार चार साल तुमको राजनीति करते हो गए . लेकिन इतना भी तमीज नहीं आया । राजनीति में ऐसी बातों के लिए बहुत ज्यादा गुंजाइष नहीं होती । आ सको तो मेरी लाबिंग करने पार्टी कार्यालय आ जाना , मैं प्रदेष महासचिव बनना चाहता हूं ।‘
विजया ने आहिस्ता से फोन के चोगे को रख दिया। निष्वांस भर कर कमरे के बीच में खड़ी हो गई । उसने महसूस किया - धरती की चट्टानें पिघल पिघल कर उसके सीने में जमती जा रही हैं। अब उसके हृदय में कुछ भी जीवित और हरा नहीं है। सब ओर जम चुकी चट्टानों का काला पठार फैल गया। वह फिर आइने के सामने खड़ी थी जेैसे आइना उसके दुखों का सबसे बड़ा साथी रहा है। उसने अपने चेहरे को देखा । चेहरा पीले कागज की तरह सपाट औेर भावहीन हो चुका था । उसने अपनी ही आंखों में देखा , वे आइने में छुपे हुए अपने हजारों खिलखिलाते अक्सों से ताकत ले रही थीं। एक तरफ सीने में जम चुका पठार था और दूसरी तरफ उसको पिघलाते हुए पुराने संघर्ष और हंसियां थीं । उसकी मुठ्ठियां ताकत से बंध गईं। अपना संघर्ष खुद ही तो जीतना है। आंखें बंद करके सोचने लगी . सुषीला को जगा कर कहा - ‘मैं पार्टी कार्यालय जा रही हूं । देर हो सकती है।‘ विजया जब बाहर निकली तो बहुत तेजी से परदे को हटाया . विजया के जाने के बाद उभरे शून्य में सुशीला खडे़ खड़े हिलते हुए परदे को देखती रही ।
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
111 rajeev nagar vidisha
प्रदेष संस्कृति प्रकोप्ठ की महिला षाखा ने आज स्त्रियों के देह प्रदर्षन के खिलाफ षहर के प्रमुख मार्गों पर विरोध प्रदर्षन किया है। इसमें भारी संख्या में नारियों ने हिस्सा लिया । यह षहर में नारियों का ऐतिहासिक प्रदर्षन रहा। महिलाओं और कन्याओं ने संस्कृति के खिलाफ किए जा रहे कार्यों के प्रति एकजुट होकर षासन को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। प्रकोष्ठ की महासचिव सुश्री विजया भारती ने कहा है कि ‘संस्कृति को दूषित करने वाले लोग अब सावधान रहेेंगे। फैषन परेडें आयोजित कराने वाले लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा । सांस्कृतिक कार्यक्रमांे के नाम पर जांघो और स्तनों का प्रदर्षन संस्कृति नहीं है। हम अपने नगर में फैषन परेडें कतइ नहीं होने देंगे।’
ष्षहर के सांध्य अखबार में यह खबर इष्तहार की तरह चमक रही थी । अखबार बरबस ही लोगों का ध्यान खींच रहा था। इस घटना की मौखिक चर्चा पूरे षहर में थी । हां, अखबार में आने पर इसे नया मोड़ मिला गया था । अब लोगों के पास सुश्री विजया का बयान था। यही बयान लोगों के लिए चर्चा का नया मुद्दा बन चुका था।
इस जुलूस के बाद विजया के बारे में कहा जाने लगा कि ‘विजया कभी इस शहर की सीधी सादी लड़की थी । ़़़़़़़ ़ ़़ ़पर अब देखिए ़़ ़़़ ़।‘ मिसेज अंजली ने अखबार रख कर अपनी बेटी से कहा- ‘बेटी !‘ उनकी बेटी ज्योति ने आंखें उठा कर मां की तरफ देखा। ज्योति इससे पहले भी कई बार मां के मुंह से विजया का नाम सुन चुकी थीं। उसकी मां कहा करती थी - ‘इस दुबली पतली लड़की के बारे में इसकी मां बहुत चिचिंत रहती थी।‘ ज्योति ने प्रष्न भरी आखें फिर उठाईं । मां ने उसकी आंखों में देख कर कहा - ‘वही जो पिछले साल अपने यहां आई थी । तेरी कड़ी की खूब तारीफ की थी ।‘
थोड़ी देर ज्योति चुप रह कर बोली -
‘मम्मी विजया के बारे में ऐसे क्यों बता रहीं हो। मैं तो अच्छे से जानती हूं उसे।‘
वह अम्मी की आंखो में ऐसे देख रही थी जैसे कह रही हो आप जो जानती हो वो सवाल और उसका जवाब मुझे मालूम है। मम्मी आगे बोलीं
‘-मेरे स्कूल के सामने से जुलूस निकला । तो मैं दंग रह गई। हे भगवान इतनी औरतें !..और यह विजया! तब मैं जान पाई के ये विजया का कमाल है। मुझे तो इंटर कालेज में इसकी स्पीच को सुन कर लगा था कि ये कुछ करेगी । तब ये इंटर की परीक्षा दे रही थी। तब से आठ साल हो गए । आठ साल कितने जल्दी बीत जाते हैं । तू कितने साल की हो गई ! विजया से तीन साल छोटी है तू।’ ज्योति ने उल्टे पेंडूलम की तरह अपने पेन को हिलाया - ‘उं उं मैं हूं रनिंग इन टवन्टी वन।’
‘चैबीस की होकर उसने जिले और स्टेट के ऊपर अपना नाम फैला दिया ।‘ मां ने कहा तो ज्योति ने छुपाकर मुंह बिचकाया।
‘मंै उससे मिलवाउंगी तुझे ,मंैने उसे क्लास में पढ़ाया है। तू मिल कर खुष होगी उससे।‘
‘क्यांे ज्योति के मुंह से निकला । गोद में गिरे इस ‘क्यों’ से अम्मी चुप थीं और ज्योति ने अपना मुंह किताबोें मे गड़ा लिया था। थोड़ी देर बाद ज्योति ने मां से कहा -‘मम्मी नाम होना जिंदगी जीने की कसौटी नहीं है। क्या तुम जानती हो मेरा नाम भी मेरी पेंटिंग के साथ जाने किन किन देषों में जा चुका है। लेकिन ये बात मायने नहीं रखती कि किसका कितना नाम है। बड़ी बात ये है कि जिंदगी के साथ आपका हंसना बोलना कितना हो पाता है । किसी से आपने पूछा कि नाम होने से वो जिंदगी भी जी लेता है । या के वो केवल अपने नाम को जीता है।‘
इसके बाद फिर मिसेज अंजली ने ज्याति से कई दिनों तक कुछ नहीं कहा।
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विजया सफल विरोध प्रदर्षन के बाद अपने बिस्तर पर लेटी थी । रात गहरा रही थी। बादलों के कालेपन से अंधेरा और भयानक हो उठा था। हल्की गड़गड़ाहट अंधेरे में तैर रही थी । गर्जन इतनी आरोही अवरोही थी कि लगता यह हमारे ही षरीर और मन के तनाव का घर्षण है। दूसरे ही क्षण जब ध्यान षरीर पर जाता तो लगता नहीं यह किसी विषाल घटना से उपजा हुआ षोर है। तभी बिजली चमकती और उस भयानकता का अहसास स्पष्ट हो जाता। विजया को लगा विषाल पहाड़ खिड़की में से उसके सिरहाने आ चुका है । अब वह धीरे धीरे उसके षरीर में प्रवेष कर रहा है । तभी उसके कानों को फाड़ देने वाली गड़गड़ाहट के साथ हल्के ठण्डे पानी के छींटे हवा के साथ चेहरे पर आ पड़े। बाहर बादल टहल रहे थे। किस बादल ने ऐसा किया है । उसे किसी बादल ने छेड़ा है। विजया को लगा कोई लड़का है। वह तमातमा गई। बिजली अब बार बार चमक रही थी।
-कितना अष्लील है सब कुछ।
बिस्तर छोड़ कर उसने खिड़की से बाहर देखा । मीलों लाइटें चमक रही थीं । ठण्डी हवाएं रह रह कर दरवाजे से टकरातीं और विजया के कमरे से होकर बाहर निकल रही थीं । बहुत थोड़ी देर रूककर अपने हाथांे को उठाया । कंधों की जकड़न मिटाकर आइने के सामने आ गई । ओह उसके मुंह से निकला। वह अपने ही वक्षांे और नितम्बों को देख रही थी । वह वापस मेज पर आकर बैठ गई । उसने अपने आप से पूछा- मैं आइने के सामने क्यों चली गई थी। क्या यह भी अष्लील है ? कोई खुद ही अष्लील क्यों हो सकता है । क्या खुद को देखना अष्लील हो सकता है। उसने विचार किया और उठ कर वापस आइने के पास चली गई । उसने अपनी टांगांे को चैड़ा किया । उसने गाउन को ऊंचा किया और देखने लगी । उर्मिला मातोडकर की टागें भी तो ऐसी हैं। आज उसने अपनी टांगें देखीं , वैसी ही थीं । अब इनका क्या करूं । उसे लगा कि ये टांगें उसकी नहीं हैं । उसकी ब्रेस्ट और हिप बडे़ हैं। ये सब किसके लिए हैं। ये किसी और के अंग हैं लेकिन बहुत पहले मुझ ये मेरे मुहं बोले भाई ने कहा था- तेरी गरदन तो गजब की सुराही वाली है। तब अच्छा लगा था लेकिन मां ने सुन लिया था और फिर कहा था ‘- अब तू पूरे गले वाला सूट पहनना षुरू कर दे विजया।‘ वह आइने के सामने मां हो गई और जो प्रतिबिंब दिख रहा था उसे डांटने लगी -ऐसे चैड़ी टांगे करके खड़े नहीं होते और न बैठते । कैसी बैठी है ? ठीक से बैठ।
और आज भी तो यही हुआ न. पार्टी के नेता कैसे उसकी कमर को छूने के कोषिष कर ते हैं । कैसे उसे दबोचते हैं. कभी कभी तो सच में उसे लगता- यह सब कितना गंदा है। एक तरफ हम उनके कहने पर पोस्टर फाड़ें और दूसरी तरफ रात में वे ही हमें दबोचने की कोषिषें करते हैं । मैं नहीं चिल्लाती तो जिलाध्यक्ष गौतम ने तो सुषीला को पकड़ ही लिया था. झिड़कने पर कहता है- ‘कोमन है ये सब ।‘ विजया सारे नेताओं की हरकतों और षब्दों के प्रयोग को हर वक्त पहचान लेती थी. वह जानती थी किस की कामना क्या है । लोग कभी बड़े बन कर, कभी मां की स्टाइल में, कभी दादा की स्टाइल में सामने आते या फिर छोटे होकर हृदय का रस पीने की कोषिष करते । कोई दोस्त बन कर कंधे पर हाथ रखने या लान में टहलने की जिद करता । कभी मुझे सच में डर लगता कि इतने सारे लोग यदि एक हो जाएं तो मेेरे षरीर को कैसा बना देंगे । यदि मैं किसी से दोस्ती करूं तो हर ओर से मेरे ऊपर छाने की कोषिष करते हैं। सब कुछ घृणित और गंदा लगता । विजया प्रतिबिंब पर ध्यान देती है। फिर ठीक से बैठ जाती । अपनी मां को याद करके खुद से ही कहती
‘-दुपट्टा डाल न । अपनी सहेलियों को देख कर कुछ सीख जा । देख सुरूचि अपना पूरा ध्यान रखती है । मजाल क्या है कुछ.........और तू है कि होष ही नहीं रखती अपना।‘
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धीरे धीरे मुझे भी लगने लगा कि सच यही है। मां और सुरूचि ही सही हैं। क्योंकि तभी भाई भी यही कहता था- ‘विजया को कुछ होष नहीं रहता। दोस्तों के सामने न आया करे -मां इसे बोल दो।‘ वह गुस्से में बुदबुदाता जाता-इसमें बिल्कुल भी मैनर नहीं है। पापा ने आज तक कुछ नहीं कहा । तेज चलने और उछल कर निकलने पर आंखें जरूर दिखा देते थे। मैं समझ जाती कि अब उछलना बंद। मैं बहुत जोर से हंसती तब पापा दूसरे कमरे मे चिल्लाते -‘क्या है विजया ! तब मैं ही ही करते हुए चुप हो जाती । इस सब के बाद भी लगता कि सच्चाई कुछ और है । मन ये स्वीकार ही नहीं करता था।‘
विजया फिर बिस्तर पर लेट गई। हवा की लहरें खिड़की के परदों को झकझोर कर उसको छूने आ जाती थीं । उसने अपना चेहरा चादर से ढक लिया था । फिर भी उसे लग रहा था आसमान की पूूरी नमी उसके षरीर में बैठती जा रही है।
आज सारे दिन जो किया उसका सीन उसकी आखों में तैरने लगा. दुबली पतली लड़कियां उछल कर कालिख पोत रही हैं। पोस्टरों को फाड़ रही हंै। नारे की आवाज बुलंद कर रही थीं। विजया ने किसी पोस्टर को गौर से देखा और चिन्दी चिन्दी होते पोस्टर में खुद को देखने लगी । जहां भी लड़के लड़कियां कालिख पोतते उसे अच्छा लगता लेकिन अब उसके ही कमरे में क्यों लग रहा है कि यह कालिख उसके अंगो पर पुती है। पोस्टरांे को फाड़ते फाड़ते यह क्या देखने लगी । उसे पोस्टरों पर छपी हिप जांघे और डांस के चित्र अच्छे लगने लगे। सामने बिखरा सारा तामझाम अपने ही खिलाफ लगने लगा। वह खुद ही अपने खिलाफ लगने लगी । उसकी गति में ,उसके उत्साह में अनावष्यक उदासी झलकने लगी।
दूसरे दिन उसकी स्पीच में धार नहीं थी जो वह इससे पहले पैदा हो जाया करती थी । आज वह कह रही थी । हमारे विचार से यह सब जल्द बदल जाना चाहिए । हमंे अपने विवेक को जाग्रत करना होगा। आज उसके विचारों में इन पोस्टरों के प्रति भयावहता और डर नहीं था । आज विजया की आंखों में सच को स्वीकार करने के बाद आने वाली चमक झलक रही थी । यह कमजोरी झूठ की हजारों दहाड़ों से ज्यादा ताकतवर थी. षाम को विजया अपने कमरे मे आ चुकी थी । वह पहली बार इस आंदोलन के लिए इतनी उदास और अषांत थी । उसे लगा इस आंदोलन की नीव में कुछ गड़बड़ है । उसे और षामों से आज ज्यादा थकावट महसूस हो रही थी । लेटने से पहले उसने म्युजिक सिस्टम आॅन किया। कुछ देर लेटे रहने के बाद उठ गई । सिस्टम के पास आई और नई सीडी डाल दी । संगीत का असर विजया के मन और षरीर में फैल गया गया। पैरों में थिरकन नषे की तरह चढ़ने लगी थी । विजया डांस करने लगी थी । कांच मंे वह खुद को देख रही थी।
‘अरे जैसी ........‘उसने अपने हिपोेें को फिर हिलाया
षिफान का नाइट सूट उतार दिया और देखा उसका सब कुछ कल वाले पोस्टर जैसा है जिसे उसने एक राड में उलझा कर सड़क पर छितरा दिया था । उसने पोस्टर की तरह खुद को बनाया। आइना बता रहा था कि उसके कंधे हिप कमर और स्तन पोस्टर से भी अच्छे लग रहे थे । उसकी इच्छा हुई कि कोई उसका फोटो खींच ले और सब चैराहांे पर लगा दे । लेकिन यह संभव नहीं था । और वह फिर ए. आर. रहमान के संगीत पर डांस करने लगी।
अचानक रात में ज्योति के फोन की बेल आई। ज्योति उनींदे स्वर में थी -
‘हैलो ,मैं ज्योति हूं ।‘
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-‘मैं विजया भारती बोल रही हूं। तुम अभी आ जाओ। मैं गाड़ी भेज रही हूं !‘
-‘किसलिए ? ‘
-‘तुम पेंटर हो न, इसलिए।‘
-‘मैं आपका चित्र दोपहर में आकर बनाउंगी। अभी आप बिलकुल तनाव और थकावट से फ्री हों.‘ दूसरे दिन सुबह उसने सेना के लड़कांे को बताया कि आज आंदोलन स्थगित रहेगा। उत्तेजित लड़के लड़कियां निराष हो गए थे। एक लड़के ने बताया भी कि आज मेडम नए अन्दाज में थीं । ज्यादा मुस्करा भी रही थीं । आज दीदी की हेयर स्टाइल कुछ अलग थी। बाहर जाकर लड़के कह रहे थे आज तो दीदी कुछ और ही थीं । विजया को मां की झिड़की याद आ गई। वह रात को उसके पैर हिला कर होष में आने के लिए कहती -देख कैसे सो रही है। उसका चादर एक तरफ हो जाता था और गाउन अपने आप घुटनों से ऊपर चला जाता था। उसने हाथ से छू कर देखा तो सच में गाउन ऊपर खिसका हुआ था । विजया तत्काल अपने घुटने मोड़ लेती और गाउन को खींच कर पैरांे पर डाल लेती । आज मां नहीं है और न कोई देखने वाला लेकिन उसे लगता है कि अंधेरा उसके पैर देख रहा है।
वह रात के निगेटिव में से बाहर निकल आई थी ।
जिस वास्तविकता के सामने खड़ी थी युवाओं का हुजूम उसके सामने था और धूप उसके सर पर चमक रही थी । पसीने की बूंदें उसकी लाल त्वचा पर मोती की तरह सजी थीं । उसके चेहरे पर आंदोलन की गरिमापूर्ण चमक थी। इस समय वह नेहरू चैक पर अपने आंदोलन को संचालित कर रही है । बहुत सारे लड़के विजया के चारों और खड़े हैं । भरा भरा माहौल बनता जा रहा है । कोई बहुत मसक्कत के बाद आता और दीदी के पैर छू कर अपने आप को धन्य करता । ऐसे लड़कों के सिरों पर विजया बहुत पवित्रता से हाथ रखती थी। सेना के लड़के भी आ गए थे - ‘दीदी हुक्म दो.‘ किसी ने अपने संगठन के नषे में चूर होकर कहा। किसी ने कहा-‘अब विजय हमारी है।’
विजया मुस्कुरा रही थी । लड़के और कुछ लड़कियां उनके आदेष का इंतजार कर रहे थे । सेल फोन विजया के कान से सटा था । कुछ लड़के कोलतार की कालिख डिब्बांे में लटकाए हुए थे । बहुत सोच समझ कर विजया दीदी ने अपने साथ लगे हुजूम को आदेष दिया। उन्होंने हाथ से इषारा किया । सब लोगों ने चिल्लाया -चलो। और हुजूम विजया के साथ आगे बढ़ने लगा। लड़कियां उत्साह में चीख रही थीं। लड़के विजय भाव से सांड़ों की तरह इधर उधर देख कर झूम रहे थे जैसे वे कोई अपराजेय सांड़ हैं। मानो उन्हें कोई पोस्टर दिखेगा और उसे अपने सीगों फंसा कर फाड़ डालेंगे । संस्कृति के खिलाफ किसी भी पोस्टर को देखने लायक नहीं बचने दंेगे । हूजुम धीरे धीरे मस्ती में बढ़ रहा था । बीच में से किसी ने नारा दिया
गंदे पोस्टर गंदगी हैं।
जुलूस चिल्लाया-गंदे पोस्टर गंदगी हंै। ठोस और भारी आवाजों का गोला उठा और आसमान में जाकर बिखर गया। व्यापारी, दुकानदार, ठेले वाले और ग्राहक सहम गए। दुकानदारों ने अपना सामान अंदर खींचते हुए कहा-कुछ भी हो सकता है। वे अंदर से किसी अनहोनी के डर से भर कर अपने काम में लग गए। हूजूम अपना ध्यान खींचने में सफल रहा था । व्यापारियों के चेहरों की निष्चिंत्ता खत्म हो चुकी थी । इस बार फिर किसी ने नारा दिया ‘-औरत के वस्त्र - औरत की षान हैं।‘
‘फैषन परेड नहीं चलेगी । नहीं चलेगी नहीं चलेगी।‘
आसमान गूंज गया। इसी चैराहे पर एक फिल्म के विज्ञापन पर कालिख पोत दी गई। विजया दीदी ने देखा कि पोस्टर में अण्डर बियर पहने एक लड़की डांस कर रही है । छातियां और कमर पूरी तरह दिख रही हैैंै । नाभि खुली है । हिप उभरे हंै । विजया को लगा यह अब सब उससे नहीं हो सकेगा . ‘वह सुंदरम से प्यार का इजहार करना चाहती है । सार्वजनिक लाइफ का मतलब यह तो नहीं होता कि अपनी ही मिट्टी कुटवाते रहो । यह सब पार्टी के मूर्खों की बकबास है । ‘
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ष् ष्षाम की मीटिंग में उसने पार्टी को बता दिया कि ‘ ऐसे आंदोलन अब वह नहीं कर सकती । जल्दी ही इनकी दिषा बदली जाना चाहिए । मार्डन सोसायटी में अच्छा मैसेज नहीं जा रहा ।‘
अध्यक्ष महोेदय के सामने थोड़ी सी तू तू मैं मैं हुई । किसी ने कहा था- ‘दिषा ही बदल दो , साब दिषा ही आड़े आ रही है तो दिषा ही बदल दो ।‘ कुछ लोग मुस्कुराए थे । ज्यादातर मेंबर चुप ही रहे थे ।
अध्यक्ष महोदय ने मीटिंग के अंत में कहा -‘ तुम्हें बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार रहना चाहिए ।‘
विजया ने दूसरे दिन सुंदरम को फोन लगा कर कहा- ‘मैं अब इस काम से मुक्त हो रही
हूं । तुम कल अपनी कार लेकर आना. कहीं लंच पर चलेंगे।‘
लेकिन सुदर्षन रिजिड था । उसने रूखे स्वर में कहा- ‘जो बड़ी जिम्मेदारी तुमको बताई गई है , उसका कुल मतलब इतना है कि तुमसे प्रदेष महिला संस्कृति प्रकोष्ठ छीना जा रहा है।‘
‘-तब भी तुम षाम को आना तो । विजया के चेहरे में उत्साह की ध्वनी थी ।‘
‘-यार चार साल तुमको राजनीति करते हो गए . लेकिन इतना भी तमीज नहीं आया । राजनीति में ऐसी बातों के लिए बहुत ज्यादा गुंजाइष नहीं होती । आ सको तो मेरी लाबिंग करने पार्टी कार्यालय आ जाना , मैं प्रदेष महासचिव बनना चाहता हूं ।‘
विजया ने आहिस्ता से फोन के चोगे को रख दिया। निष्वांस भर कर कमरे के बीच में खड़ी हो गई । उसने महसूस किया - धरती की चट्टानें पिघल पिघल कर उसके सीने में जमती जा रही हैं। अब उसके हृदय में कुछ भी जीवित और हरा नहीं है। सब ओर जम चुकी चट्टानों का काला पठार फैल गया। वह फिर आइने के सामने खड़ी थी जेैसे आइना उसके दुखों का सबसे बड़ा साथी रहा है। उसने अपने चेहरे को देखा । चेहरा पीले कागज की तरह सपाट औेर भावहीन हो चुका था । उसने अपनी ही आंखों में देखा , वे आइने में छुपे हुए अपने हजारों खिलखिलाते अक्सों से ताकत ले रही थीं। एक तरफ सीने में जम चुका पठार था और दूसरी तरफ उसको पिघलाते हुए पुराने संघर्ष और हंसियां थीं । उसकी मुठ्ठियां ताकत से बंध गईं। अपना संघर्ष खुद ही तो जीतना है। आंखें बंद करके सोचने लगी . सुषीला को जगा कर कहा - ‘मैं पार्टी कार्यालय जा रही हूं । देर हो सकती है।‘ विजया जब बाहर निकली तो बहुत तेजी से परदे को हटाया . विजया के जाने के बाद उभरे शून्य में सुशीला खडे़ खड़े हिलते हुए परदे को देखती रही ।
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
111 rajeev nagar vidisha
मंगलवार, 9 जून 2009
आसमां
मैं आसमाँ ले के आया था
तुमने बाहों को फैलाया ही नहीं
मैं रातभर सितारे बनता रहा
तुमने पलकों को उठाया ही नहीं
क्या शिकायत कि शाम नहीं देखी
तुमने खिड़की का परदा हटाया ही नहीं
कोई चेहरा मायूस नहीं था यहाँ
तुमने किसी के लिए मुस्कुराया ही नहीं
सर तो हजार झुके थे शहर में
किसी सर को तुमने झुका समझा ही नहीं
चाय
तुम चुप थीं और मैं भी चुप था
हमारे बीच चाय का कप था
धूप का सुनहरा रंग लिए
उसकी सुनहरी किनार पर
तुम्हारी आँखें चमक रही थीं
बहुत देर तक चाय
जिÞंदगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
फिर तुमने उँगली से चाय पर जमी परत हटा दी
मैंने कप को उठा कर ओंठों से लगा लिया
आधा बिस्किट
तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है
तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में
तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार
आधा बिस्किट
तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है
तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में
तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार
सोमवार, 25 मई 2009
इंतजार का शाल
तुम इंतजार का शाल लपेट कर शाम की गज़ल सुनती हो
अकेले छत पर बैठ कर सुहानी हवाओं में क्या सुनती हो
अपनी उंगलियों में छुपाए हुए रोशनी के फूल खोलो
बहुत जादुई हैं उंगलियां इनमें क्या राज गुनती हो
चेहरे में रोशनी भरी मुस्कान की इंतहा चमक है
क्या अपनी उंगलियों से रोशनी के कन चुनती हो
क्यों अकेले खड़ी हो खिड़कियों में अंधेरे आ चुके हैं
बल्ब की मद्विम रोशनी में कौन सा अहसास बुनती हो
हम दिन और रात को अपना बना के रखते हैं
तुम अपनी ज़िन्दगी को क्यों पल पल रूनती हो
रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति
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